Tuesday, September 30, 2008

घुघूती जी कहाँ हैं आजकल?

मित्रो...काफी वक्त से घुघूती जी ब्लॉग जगत से अनुपस्थित हैं! न ही पोस्ट के रूप में और न ही टिप्पणी के रूप में वे पिछले काफी समय से उन्होंने कुछ लिखा है!बीते दिनों उनके पतिदेव का स्वास्थ्य कुछ खराब था...इसलिए फ़िक्र हुई की कहीं उनके स्वास्थ्य ज्यादा खराब तो नहीं?उनका कोई मेल आई डी भी नहीं है!एक दो लोगों से जानना चाह पर उन्हें भी कुछ पता नहीं है! यदि आप में से किसी को उनके बारे में जानकारी हो तो कृपया बताएं की वे कहाँ हैं और कैसी हैं!

कृपया इस पोस्ट पर टिप्पणी न करें....सिर्फ उनकी जानकारी लेने के लिए ये पोस्ट लिखी है! धन्यवाद....

Monday, September 22, 2008

आस्तिक और नास्तिक के बीच एक शास्त्रार्थ

पंडित रामेश्वर शर्मा- शहर के एक स्कूल में शिक्षाकर्मी वर्ग -२ के पद पर कार्यरत मास्टर! स्कूल में सिलेबस कम और रामायण,महाभारत ज्यादा पढाते हैं,चूंकि उन्होने भी छुटपन से ही सिलेबस कम और रामायण ,नहाभारत ज्यादा पढा! जुगाड़ बैठ गयी सो नौकरी मिल गयी! घोर आस्तिक,कर्मकांडी,पूजन कीर्तन में मन रमाने वाले और संतान को ईश्वर का उपहार मानने वाले (ईश्वर के दिए ६ उपहार इनके घर में धमाचौकडी करते देखे जा सकते हैं!) ऐसे हैं पं. रामेश्वर शर्मा जी...

श्री द्वारिकाप्रसाद गुप्ता- शहर में कामचलाऊ प्रेक्टिस करने वाले एक वकील! साधारण सा मकान,साधारण सी पत्नी,साधारण से दो बच्चे,कुल मिलाकर सब कुछ साधारण! लेकिन एक बात बड़ी असाधारण, और वो है उनकी घोर नास्तिकता ! अगर कोई कहे कि मंदिर में हाथ जोड़ोगे या पांच जूते खाओगे तो तुरंत पूछेंगे 'कहाँ खाना है सिर पर या पीठ पर' ! ऐसे हैं श्री द्वारिकाप्रसाद जी !

तो हुआ यूं कि एक रोज़ पं. रामेश्वर को कहीं से द्वारिका प्रसाद जी कि घोर नास्तिकता की भनक लगी तो विचार बनाया कि चलकर वकील साहब की बुद्धि को शुद्ध किया जाए सो अपनी साइकल खड़खडाते पहुँच गए वकील साहब के घर! चुटिया पर हाथ फेरते घंटी बजाई,वकील साहब ने दरवाजा खोला! पंडित जी ने नमस्कार की मुद्रा बनाई! वकील साहब ने ऊपर से नीचे तक आँख फाड़ फाड़ कर देखा पर परिचय का कोई निशान न पा सके! पंडित जी ने अपना परिच दिया,आने का प्रयोजन बताया! वकील साहब अन्दर से ऐसे प्रसन्न हुए कि होंठ तो होंठ ,मूंछें तक मुस्कुरा उठीं ! उन्होने तरस खाते हुए आगाह कर दिया कि हमारे विचार नहीं बदलेंगे पर आशय था कि तुम्हारे जैसे छतीस आये छत्तीस गए पर हमारे विचारों को खरोंच तक नहीं आई!पर पंडित जी भी अपनी बात पर अड़े थे सो भैया शास्त्रार्थ शुरू होता है -


पं.-इससे तो आप सहमत होंगे कि भगवान् राम जैसा कोई आदर्श पुरुष नहीं?
वकील सा.-भगवान्,फगवान तो मैं कहता नहीं,हाँ राम जैसे दुनिया में बहुत मिलते हैं!
पं.-राम का जीवन एक आदर्श जीवन है!
वकील सा.-अब मुंह न खुलवाओ हमारा,एक ही उदाहरण दिए देते हैं! सीता को जो बिना बात के घर से निकाला है न,अगर आज का ज़माना होता तो धरा ४९८(अ) में कब के अन्दर हो गए होते!' काहे का आदर्श, हुंह ' वकील साहब ने मुंह बिचकाया!

पंडित जी मुंह की खाकर थोडा तिलमिलाए,पर हिम्मत नहीं हारी!

पं.-चलो ठीक है,मत मानिए भगवान् राम को.हमारे तो करोडों देवता है अभी तो बहुत बचे हैं! सीता माता को तो पूजोगे?
वकील सा.- इससे अच्छा अपनी पत्नी को न पूजें जो हमारी गलतियों पर हमें खाने को दौड़ती है! सीता नासमझ थी,घर से आंसू बहाकर निकलने की बजाय पति की बुद्धि ठीक की होती,बच्चों को उनका अधिकार दिलाया होता,भरण पोषण भत्ता लिया होता तो कुछ सोचा भी जा सकता था!इससे अच्छी तो हमारी क्लाइंट्स हैं जो पति के खिलाफ मुकदमा लड़ने हमारे पास आती है.कम से कम अन्याय के खिलाफ आवाज़ तो उठाती है!

पंडित जी का चेहरा जो पहले से ही बदरंगा था,और बदरंग होने लगा, पर डटे रहे !

पं.-अच्छा छोडो रामायण को,महाभारत के पात्र ज्यादा वैरायटी लिए हुए है! उनमे से आपके कई आदर्श मिल जायेंगे!
वकील सा.-कोशिश कर देखो!

पं.-कृष्ण भगवान् को तो मानोगे,जिन्होंने हमेशा परिस्थिति देखकर काम किया और सफल रहे! वे सच्चे मायनों में आदर्श है!
वकील सा.-इस गुण को विद्वान् कूटनीति कहते है ! अगर कृष्ण को पूजें तो बिस्मार्क और नेहरू जी को क्यों न पूजें? इनकी कूटनीति भी मशहूर है!

पं. (जोर से)- गुरु द्रोणाचार्य समस्त गुरुओं में उत्तम है!
वकील सा.-काहे के उत्तम जी, इनसे अच्छे तो हमारे घासीराम मास्साब है ,बच्चों से फीस लेते है तो बदले में कम से कम एक घंटा पढाते तो है! तुम्हारे द्रोणाचार्य ने तो गरीब एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में ले लिया ,वो भी बिना कुछ सिखाये,पढाये! और दूसरी बात,वहाँ भी अगर अकाल से काम लिया होता और एकलव्य को पटाकर टीम में शामिल कर लिया होता तो टीम मजबूत हो जाती! आये बड़े द्रोणाचार्य को उत्तम कहने वाले !

पं.-और गुरु परशुराम...
वकील सा. (बीच से ही बात को लपकते हुए) - अरे,जातिवाद का श्रेय तो तुम्हारे परशुराम को ही जाता है! अपने विद्यालय की सारी सीट ब्राह्मणों के लिए आरक्षित कर दीं ! तुम्हारे ही होते होंगे ऐसे आदर्श,हमारे नहीं होते!
पंडित जी खिसिया खिसिया कर ढेर हो रहे थे,वकील साहब के तर्कों के आगे उनके सारे वार खाली जा रहे थे! पूरी एकाग्रता से सारे देवताओं का स्मरण कर उन्होने एक बार फिर जोर मारा ..

पं.- अच्छा,दानवीर कर्ण तो प्रत्येक गुणों से परिपूर्ण थे! अब कहो,क्या कहना है?
वकील सा.- हा हा,इमोशनल फ़ूल था कर्ण !ऐसी सीधाई भी क्या काम की कि अकल का भट्टा ही बिठा दे! जो लोग दिमाग को ताक पर रखकर केवल दिल से काम लेते है,वो मूर्खों के ही आदर्श हो सकते है!कर्ण से अच्छा आदर्श तो हमारे मोहल्ले का मनसा लुहार है ,जिसे बेवकूफ बनाकर उसी के घरवालों ने सारी ज़मीन अपने नाम करा ली और उसने ख़ुशी ख़ुशी कर भी दी! अब बाहर सड़क पर भीख मांगता मिल जायेगा,घर ले जाकर पूजा कर लेना उसकी!

पंडित जी पूर्ण रूप से परास्त हो चुके थे,वकील साहब के नथुने फ़ूल फूलकर विजय का एलान कर रहे थे! पंडित जी बेचारे क्या कहते, और कोई देवता उन्हें याद ही नहीं आये!आते भी कैसे ,बचपन से केवल रामायण,महाभारत ही पढी थी,वो भी १००-१०० पेज की कहानी की शकल में!अगर वही ढंग से पढी होती तो शायद वकील सा. के तर्कों के कुछ सटीक जवाब दे पाते ! पंडित जी धोती संभालते उठ खडे हुए! इससे पहले कि उनके खुद के विचार बदलते,उन्होने कृष्ण मुख करना उचित समझा! वो चले पंडित जी साइकल खड़खडाते ,अपनी चुटिया संभालते!

Thursday, September 18, 2008

" अतिथि देवो भव"

जाने किस जमाने में रची गयी होगी ये लाइन " अतिथि देवो भव" ! वैसे जिस भी ज़माने में रची गयी हो , एक बात तो तय है की उस वक्त अतिथि बड़े बढ़िया टाइप के होते रहे होंगे!बढ़िया माने ऐसा काम करने वाले जिससे मेजबान ऐसी कहावत बनाने को मजबूर हो जाए!वैसे बचपन में भी हमें वो मेहमान सदा प्रिय रहे जो आते समय चॉकलेट लाते थे और जाते समय मम्मी के न न करने पर भी दो-पांच रुपये हाथ में ठूंस जाते थे!
ऐसे देवता स्वरुप अतिथियों के आने पर मम्मी की डांट से भी मुक्ति मिलती थी!लिहाज के मारे मम्मी आँखें तरेर कर रह जाती थीं....और आँखें तरेरने से डट जाएँ ऐसे प्यारे और मासूम बच्चे हम कभी रहे नहीं!मम्मी के लिए वो कभी देवता रहे हों या नहीं हमारे लिए तो थे!

ये तो हुई हमारी कथा की भूमिका....भूमिका अगर अच्छी हो तो लगता है कि आगे भी कथा अच्छी होगी! अक्सर हम अपने दुःख की शुरुआत इसी तरह सुखभरे वाक्यों से करते हैं,
...हमें वो मेहमान सदा प्रिय रहे जो आते समय चॉकलेट लाते थे और जाते समय मम्मी के न न करने पर भी दो-पांच रुपये हाथ में ठूंस जाते थे!...

जिससे किसी को ऐसा न लगे की लो खोल ली अपने दुखों की गठरी!तो भैया...अब न वो बचपन रहा और न वैसे देवता स्वरुप अतिथि! शायद मेहमानों से बचपन में स्नेह होने के कारण भगवान ने हमें मेहमान नवाजी का भी बहुत मौका दिया है!हमारा घर मेहमानों का आदी है!हर प्रकार के मेहमान घर में निस्संकोच आते हैं!इन्ही में से दो मेहमानों को ख़ास चुनकर आपके सामने आज पेश कर रहे हैं....इस आशा के साथ कि उनकी इस पोस्ट पर नज़र ने पड़े!वैसे सावधानी बतौर हमने नाम उनके बदल दिए हैं!

अभी पिछले दिनों बेबी हमारे घर पधारी! ये 25 वर्ष की बालिका थीं....जो कोई इंटरव्यू देने भोपाल आयीं थीं! और इसमें ख़ास बात ये थी कि हमने इसके पहले इन्हें कभी नहीं देखा था! लेकिन परीक्षा देने वाले और इंटरव्यू देने वाले बच्चों के लिए हमारे मन में विशेष सुहानुभूति रहती है इसलिए हमने सहर्ष बेबी जी को अपने घर ठहराया! छोटी बहन का कमरा इनके लिए खाली कराया ...सोचा कि पहली बार आई है तो शायद संकोच की वजह से तकल्लुफ करेगी इसलिए विशेष रूप से ध्यान रखा की कोई कमी न रह जाए! पर नहीं साहब....तकल्लुफ क्या होता है , बेबी इससे नितांत अपरिचित थीं! अगले दो दिनों में हमें महसूस होने लगा कि वो मेज़बान है और हम मेहमान! हमारे अर्दली ने कभी हमारी डांट नहीं खायी थी मगर खाना बनने में दस मिनिट की देरी होने पर बेचारा अदबसिंह बेबी की ऐसी डांट खाया कि बेचारा रुआंसा हो गया! हम भी अकबकाये से रह गए!

घर के हर कुर्सी मेज़ पर बेबी के सलवार कुरते सुशोभित होने लगे! एक बार दबी जुबान में कहने की जुर्रत भी की कि अगर इन्हें घडी करके एक स्थान पर रख दिया जाए तो कैसा रहे? बेबी जी जवाब में मुस्कुरा दीं....जिसका अर्थ हम कभी नहीं समझ पाए! लेकिन चूंकि उनके कपडे कुर्सी टेबल से नहीं हटे इससे ये ज़रूर समझ गए आगे से ऐसे बेतुके आग्रह मेहमानों से नहीं करना है ! उनके स्नान करने के बाद बाथरूम की स्थिति सुलभ शौचालय सरीखी हो जाती थी! हमें कभी समझ नहीं आया कि इतना कीचड और मिटटी बाथरूम में किस प्रकार से आ जाता था!और तो और दीवार पर भी कीचड के निशान....मानो उछल उछल कर नहाती हो! उसके इंटरव्यू देने जाने के बाद हम अपनी बहन के साथ उसकी खूब बुराई करते! इससे गुस्सा थोडा कम हो जाता था!

टी.वी. देखते वक्त मजाल है कि रिमोट उनके हाथ की पकड़ से ढीला हो जाए! दो दिन हमने सहारा वन के प्रोग्रामों की टी.आर.पी. बढाई! एक बार टी.वी. देखते वक्त वो बोलीं...दीदी मैं अभी पानी पीकर आती हूँ! हम खुश हो गए ...चलो, इतनी देर में तो रिमोट अपने कब्जे में ले लेंगे मगर वे हमारे अरमानों पर पानी फेरते हुए बन्दर के बच्चे की तरह रिमोट को अपने से चिपकाए हुए ही चली गयीं!

दो दिन बाद इन्हें जाना था...इस बीच एक दिन हमें आदेश सुनाया गया कि ऑफिस पहुँचने के बाद हम अपनी गाडी भेज दें ताकि ये भोपाल दर्शन को जा सकें!यहाँ हमारी जीत हुई, हमने सफाई से बहाना बना दिया कि हमें ज़रूरी काम से कहीं जाना है इसलिए गाडी फ्री नहीं कर पायेंगे!लेकिन इतनी जल्दी प्रसन्न नहीं होना चाहिए...शाम को हमारे घर लौटते ही बड़ी चतुराई से हमसे पूछा गया " चलिए दीदी...हमें घुमा लाइए" हम तो खार खाए बैठे थे! हमने भी मधुर स्वर में कहा " नहीं यार में तो थक गयी हूँ! नहीं मन कर रहा है!" " ठीक है ..तो आप आराम करो, मैं ही जाकर घूम आती हूँ! आप थकी हो तो वैसे भी कहीं नहीं जोगी! अब तो गाडी फ्री है ही!" बेबी ने नहले पर देहला मारा! हमने एक मरी सी मुस्कराहट के साथ सर हिला दिया! अगले दिन मेहमान को जाना था...मेहमान ने कहा कि वैसे तो रात को ही जाना चाहती हूँ पर शायद रात की गाडी में रिज़र्वेशन न मिले इसलिए कल सुबह चली जाउंगी" हमने घबरा कर कहा " नहीं नहीं...तुम चिंता मत करो! रिज़र्वेशन हम करा देंगे! बल्कि अभी कराये देते हैं!" और उनके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना हमने रात की गाडी में रिज़र्वेशन और कोटा लगाने के लिए थाने में फोन कर दिया!

इस प्रकार रात को ही हमने अतिथि देवता को रवाना कर दिया...इस प्रार्थना के साथ कि ईश्वर उनका अगला साक्षात्कार भोपाल नगरी में न करवाए! बड़े डरते डरते ये पोस्ट लिखी है....कहीं बेबी ने पढ़ ली तो बड़ी हेठी हो जायेगी! सोच रहे हैं कि अब दुसरे मेहमान के बारे अभी न ही लिखें तो अच्छा क्योंकि उनको गए हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है....थोडा उनकी स्मृति भी क्षीण हो जाए तब लिखने में कोई हानि नहीं है!आप क्या कहते हैं...?

Sunday, September 14, 2008

शायद खुशियाँ सबको अच्छी नहीं लगतीं....


अभी हाल ही में राज भाटिया जी का लेख देखा....आदतों का गुलाम होने के विषय में! कल ही घर में काम करने वाली बाई ने बताया की उसकी बेटी बहुत परेशान है...पति कुछ नहीं करता , दिन भर शराब पीता है और मारपीट करता है! कई बार सोचती हूँ...कितने लोग सिगरेट, शराब, ड्रग्स ,तम्बाकू, गुटके की चपेट में हैं...इनके नुकसानों को जानते बूझते भी नहीं छोड़ पा रहे हैं...सबसे ज्यादा घर बरबाद होते हुए मैंने देखे हैं शराब की आदत से!कितनी औरतें दिन भर कमाती हैं और शराबी पति एक झटके में उस मेहनत को बोतल में भरकर पी जाता है....उसके बाद गाली गलोज , पिटाई का देर रात तक चलने वाला सिलसिला! पति शराब पीकर सोया हुआ है और पत्नी आंसू पीकर जागती रहती है! बच्चे भी सहमकर माँ से चिपक जाते हैं....कुछ साल बीतते हैं , पति कई बीमारियों का शिकार होकर हड्डियों का ढांचा बन चूका है! लेकिन घर की स्थिति नहीं बदलती है! अब बेटे ने बाप की जगह ले ली है!बोतल की खनखनाहट अभी भी घर में गूंजती है.....ये तो हुई निचले तबके के घरों की बात जो अशिक्षित हैं! उन परिवारों का क्या जो सिर्फ फैशन समझकर या स्वयं को हाई सोसायटी दिखाने के लिए जानते बूझते इस जहर को शरीर में उतार रहे हैं!कभी उन बच्चों से पूछिए जिनका पिता शराब के नशे में झूमता हुआ घर में कदम रखता है.....क्या एक लड़खडाता हुआ पिता अपने बच्चे के क़दमों को फिसलने से रोक पायेगा?! एक शौक के रूप में शुरू हुई आदत किस कदर इंसान को शिकंजे में ले लेती है!ये तब पता चलता है जब स्थिति भयावह हो जाती है......कई परिवारों का पैसा, मान सम्मान मिटटी में मिलते मैंने अपनी आँखों से देखा है!जाने कब और कैसे ख़त्म होगी इस दुनिया से नशे की लत......? ऐसे ही किसी शराबी पति से दुखी महिला से मिलने के बाद खराब मन से कभी एक कविता लिखी थी....


तीन सहमे, डरे, सिमटे हुए बच्चे
कसकर पकडे
एकदूसरे का हाथ
घर के कोने में बैठे हैं...

माँ भी अपना सूजा बदन लिए
दर्द से कराहती
आँखों में
दर्द,बेबसी,अपमान और
शर्म के आंसू लिए
औंधे मुंह पड़ी है

मोहल्ले के लोगों को
कुछ देर के लिए
अपनी जिंदगी को भूलकर
मौका मिल गया है हँसने का
आखिर देखना चाहते हैं सभी
मुफ्त का तमाशा

और...
बच्चों का पिता
नशे में चूर
दिन भर की कमाई
शराब के नाम कर आया है और
फर्श पर पड़ा है
खून उगलता हुआ

और... ख़ुशी के मारे
पास ही नाच रही है
शराब की एक बोतल
आधी भरी...
गुरूर से कहती हुई
तू खुश है मुझे पीकर
और मैं बहुत खुश हूँ
तेरा जिस्म,दौलत,सम्मान
और परिवार की खुशियाँ पीकर....

Tuesday, September 9, 2008

एक सिफारिश छोटी सी...


सुनो मांओ
बाहर रिमझिम बरसात हो रही है
मत बांधो अपने नन्हे मुन्नों को
घर के अन्दर किताबों,वीडियोगेम और कार्टूनों में
तुमने शायद देखा नहीं
तुम्हारे नन्हे की आँखें खिड़की के बाहर टिकी हुई हैं
क्या तुम्हे उसकी आँखों की प्यास नज़र नहीं आती?

उसे निकलने दो घर के बाहर
खेलने दो गीली मिटटी में
भीग लेने दो जी भर कर
यकीन मानो,
ये मिटटी उसे नुकसान नहीं पहुंचायेगी

उसे देखने दो
बारिश में भीगता पिल्ला
कैसे अपने रोंये खड़े करके कांप रहा है
शायद वह उसे किसी सूखी जगह पर रख दे

उसे सुनने दो
बूंदों का मीठा संगीत
शायद ये संगीत उसकी आत्मा में
सरगम बनकर उतर जाए

उसे छूने दो
भीगे हुए रंगबिरंगे फूलों को
शायद फूलों की कोमलता
उसके ह्रदय को भी कोमल बना दे

उसे जानने दो
मिटटी में एक इंच नीचे ही
केंचुए भी रहते हैं
जो हमारे दोस्त हैं
शायद वह केंचुओं से डरना छोड़ दे

उसे महसूस करने दो
मिटटी की सौंधी महक
शायद वह जान पाए
इससे अच्छा कोई इत्र नहीं बना

और जब वह उछल रहे हों
पानी के छींटे उडाते हुए
चुपके से उनका एक फोटो खींच लो
सहेज लो इन पलों को अपनी स्म्रतियों में
शायद ये सबसे अनमोल तस्वीर होगी
उसके लिए भी और तुम्हारे लिए भी...



Thursday, September 4, 2008

बंधे हुए है हम सब एक अनजानी डोर से


रोज़मर्रा के जीवन में भी अचानक कभी कुछ ऐसा देखने को मिल जाता है जो यकीन दिला जाता है कि हम सभी इंसानों के बीच ऐसा कुछ है जो हमें एक दूसरे से जोड़े रखता है! अनायास ही नितांत अपरिचित चेहरे अपने से लगने लगते हैं...और सभी एक धागे से बंधे हुए से लगते हैं.!

मैं बांटना चाहूंगी अपना कल का अनुभव....बाज़ार से घर लौट कर आ रही थी तो देखा रास्ते में एक क्रेन आड़ी खड़ी हुई है जिसके कारण रास्ता बंद है और गाडी आगे नहीं जा सकती थी! ड्रायवर ने उतरकर पता किया तो मालूम हुआ कि एक पेड़ खतरनाक स्थिति में खडा है और उसे गिराने के लिए नगर निगम की क्रेन आई है...मैं वहीं गाडी रोक कर पेड़ के गिरने का इंतज़ार करने लगी...एक व्यक्ति ने एक मोटे रस्से को पेड़ की ऊंची डाल से बाँधा , इसके बाद क्रेन ड्रायवर क्रेन स्टार्ट करके उसे खींचने लगा ....लेकिन खट की आवाज़ हुई और रस्सा टूट गया ! रस्से बाँधने वाले और क्रेन ड्रायवर ने एक दूसरे को निराशा भरी आँखों से देखा और फिर से रस्सा बाँधने की तैयारी शुरू हुई! अब तक मैं भी उत्सुक हो चुकी थी की देखें इस बार पेड़ गिर पाता है या नहीं...एक बार फिर वही प्रक्रिया दोहराई गयी.....और जैसे ही क्रेन स्टार्ट हुई...वही खट की आवाज़ और रस्सा फिर टूट गया...! ओह...अच्छा नहीं लगा!

तभी मैंने गौर किया....की मेरी ही तरह कई राहगीर वहाँ रुके हुए हैं और इस प्रक्रिया को देख रहे हैं! जो दो पहिया वाहन वहाँ से निकल सकते थे...उन्होंने भी अपनी गाडियां रोक दी थीं! अब शुरू हुआ रस्से बाँधने वाले का हौसला बढाने का सिलसिला! सब तरफ से " शाबाश" ," इस बार हो जायेगा" आदि आवाजें आने लगीं! रस्सा बाँधने वाले ने एक बार फिर रस्सा कस के बाँधा और जैसे ही ड्रायवर ने क्रेन स्टार्ट की...भीड़ में से किसी ने चिल्लाया " गणपति बब्बा...." और ड्रायवर सहित सारे लोग चिल्ला उठे " मोरिया" ! ड्रायवर ने पूरे जोश में क्रेन आगे बढाई और एक बार फिर असफलता...! उन दोनों के साथ भीड़ से भी निराशा भरी आवाजें आयीं....


फिर से गणपति जी की जय जय कार के साथ काम शुरू हुआ....लेकिन लगातार चार बार रस्सा टूटा! लेकिन अब क्रेन वाले अकेले नहीं थे...करीब सौ अनजाने लोग उनका हौसला बढा रहे थे और रस्सा पकड़ने में मदद भी कर रहे थे ! इस वक्त जैसे सभी को कोई और काम याद नहीं था ...सिवा इसके की ये पेड़ गिरना है!आम तौर पर ट्रैफिक लाईट के ग्रीन होने का भी वेट न करने वाले लोग घर जाना भूल कर पिछले २० मिनिट से इस प्रक्रिया का हिस्सा बने हुए थे....मैं भी पेड़ गिरने के बाद ही वहाँ से जाना चाहती थी!फाइनली पांचवी बार रस्सा नहीं टूटा बल्कि एक जोर की आवाज़ के साथ पेड़ नीचे गिर गया! सभी लोग ख़ुशी से झूम उठे...कुछ ने करीब जाकर क्रेन ड्रायवर और उसके साथी को बधाई दी , कुछ ने वहीं से हाथ हिला दिया! दो मिनिट के बाद सब अपने अपने रास्ते चल दिए...और सड़क अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई...मैं भी आगे चल दी!

मैं सोचती जा रही थी...वो क्या चीज़ है जो अनजान होते हुए भी हमें एक दूसरे से जोड़े रखती है? शायद हम एक जैसे हैं इसलिए दूसरे के प्रयत्नों में हमें अपने प्रयत्न दिखाई देते हैं... जब कोई और हिम्मत हारता है तो हम सब उसकी हिम्मत बढाते हैं क्योकी उसके अन्दर भी हमें अपना सा ही एक अक्स नज़र आता है.....खैर कारण जो भी हो , मुझे बहुत अच्छा लगा! घर पहुँचने को ही थी...तभी ड्रायवर बोला " मैडम...जब चौथी बार भी पेड़ नहीं गिरा तो मैं दुखी हो गया था!" मैंने धीरे से कहा " मैं भी!"