Monday, January 5, 2009

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें.....


मैं न्यू मार्केट जाती हूँ..गाडी से उतरने लगती हूँ इतने में मेरा मोबाइल बजता है! मैं नहीं उठाती, दो बार पूरी रिंग बज जाती है! तीसरी बार मैं उठाकर बात करती हूँ....अभी तक पार्किंग में ही खड़ी हूँ!बात करने के बाद आगे बढ़ने लगती हूँ इतने में देखती हूँ की एक छोटा बच्चा चेहरे पर मुस्कराहट लिए मेरी ओर देख रहा है! शायद यहीं कुछ काम करता होगा....उसके मैले फटे कपडे देखकर मैं अंदाजा लगाती हूँ! मैं आँखें उचका कर पूछती हूँ " क्या चाहिए? आइसक्रीम खायेगा?" बच्चा थोडा बेतकल्लुफ होकर झिझकते हुए कहता है " एक बार मोबाइल में गाना सुनाओगी?" " कौन सा गाना?" बच्चा करीब आकर कहता है " अभी जो बज रहा था, पल पल पल हर पल, मुझे बहुत पसंद है!" ओह ये मेरे मोबाइल की रिंग टोन के बारे में बात कर रहा है! मैं दो बार उसे गाना सुनाती हूँ.....वो बहुत खुश है! गाना सुनकर मुझे बाय
करके वो निकल जाता है!

मैं मार्केट में खरीदारी करते हुए भी सोच रही हूँ कि ख़ुशी बड़ी बड़ी चीज़ों कि मोहताज नहीं! एक गाना सुनकर वो बच्चा इतना खुश हो गया! शायद जिंदगी से हमें बहुत ज्यादा नहीं चाहिए होता है...वो तो हर कदम पर हमें गले लगाना चाहती है! हम ही उससे संतुष्ट नहीं होते जो वो हमें देती है!

दूसरी बात जो साथ साथ साथ मेरे दिमाग में चल रही है वो ये कि जिंदगी खुशियाँ बांटने का दूसरा नाम है! दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! और जहां तक हो सके ये मौका हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए!

अभी कुछ दिन पहले ही मैं पुलिस कर्मचारियों को स्ट्रेस मैनेजमेंट पढ़ा रही थी! मैंने उनसे पूछा की वे बताएं की उन्होंने कोई नेक काम पिछली बार कब किया था? १० मिनिट तक सोचने के बाद केवल दो हाथ उठे जिनमे से एक ने पच्चीस साल पहले भोपाल गैस काण्ड के वक्त किसी बूढे आदमी की मदद की थी और दुसरे ने सन २००० में एक विधायक की जान बचाई थी!
कितने हैरत की बात है न हमें कोई अच्छा काम किये हुए इतना वक्त बीत जाता है की हमें याद ही नहीं आता!

और दर असल हम सोचकर कोई अच्छा काम नहीं करते वो तो बस हमसे हो जाता है! मैंने शायद ही कभी किसी सुबह उठकर अपनी टू-डू लिस्ट में कोई नेक काम करना शामिल किया होगा! कई बार देखती हूँ बड़े बड़े अधिकारियों के छोटे छोटे बच्चे अपने से दोगुनी तिगुनी उम्र के अर्दलियों और ड्रायवरों को उनके नाम से बुलाते हैं....कितने कचोटता होगा उन्हें? उनके पढ़े लिखे माँ बाप जो सामाजिक कामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अखबारों में शान से फोटो छपवाते हैं, क्यों कभी नहीं सोचते कि उनके बच्चे अगर उनके मातहत कर्मचारियों को अगर भैया, दादा कहकर पुकारेंगे तो अपने पढ़े लिखे होने का ही सबूत देंगे और सबसे बड़ी बात किसी के आत्म सम्मान को बरकरार भी रखेंगे! बिना एक भी पैसा खर्च किये सिर्फ अपने व्यवहार से भी किसी को ख़ुशी दी जा सकती है!
जो माँ बाप दुनिया के भूगोल, इतिहास, विज्ञान के बारे में बच्चों को बड़ी बड़ी बातें सिखाना चाहते हैं...वे इंसानियत का पाठ पढाना क्यों भूल जाते हैं! कई बार लगता है जैसे अमीरी के साइड इफेक्ट के रूप में गुरूर और अहम् अपने आप चला आता है!

हर साल नए साल पर सोचती थी ...इस साल कुछ नया करुँगी, कोई नयी जगह देखूंगी या कोई अच्छी आदत डालूंगी पर इस साल सोचा है अगर पिछले साल की तुलना में जरा सा भी बेहतर इंसान बन पायी तो खुद को खुश किस्मत समझूंगी! निदा फाजली की ये लाइनें लगातार जेहन में चल रही है...
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए.....