Friday, August 20, 2010

मनसुख कवि कैसे बना..?

कविवर कोई ऐसी युक्ति बतलाइए की मैं शीघ्र ही अच्छे कवियों में स्थान पा जाऊ .” जमीन पर उकडू बैठा मनसुख कवि कालजईदिग्गजके चरण दबा रहा था .मनसुख के मन में एकाएक कवि बनने की लालसा जग गयी थी !यूं मनसुख कोई कवि ह्रदय लेकर पैदा नहीं हुआ था.मनसुख का बाप पहले कवि वर के घर नाई का काम करता था .एक दिन बेचारे को लकवा मार गया .अगले दिन से मनसुख काम पर गया .आठवी कक्षा का होनहार छात्र मनसुख नया काम पाकर बहुत खुश हुआ .गणित ,संस्कृत और अंग्रेजी से मुक्ति मिल गयी थी साथ ही मास्टर जी की संटियों से भी .नए काम में मेहनत कम थीकवि वर की खोपड़ी पर कुल जमा 20-25 बाल थेउन्ही की मालिश करवाते थेलगे हाथ लम्बे बालों की कटाई छटाई भी करवा लेते थे और कभी कभी अपनी सूखी लकड़ी सी देह की मालिश भी करा लेते थे . कविवर की देह भी उनके कवि ह्रदय के सामान नाज़ुक थीज्यादा कड़क हाथ बर्दाश्त कर पाती थी इसलिए मनसुख का काम देह पर हाथ फिराने भर से चल जाता था! कभी कभी उसमे भी कवि की आह निकल जाती तो सफाई का कपडा उठाकर मेज की तरह देह को भी झाड देता था.वही मालिश का काम कर देता था. दो तीन साल से इसी तरह शरीर झाड़ते झाड़ते कवि की कवितायें भी कानों में पड़ती रही. शुरू में तो मनसुख का मन होता की यही झाड़ने वाला कपड़ा कवि के मुंह में ठूंस दे किन्तु नौकर मालिक के सम्बन्ध ऐसा करने में आड़े आते थे इसलिए मनसुख उस कपडे को कवि के मुंह की जगह अपने कानो में ठूंस लेता था.
लेकिन एक बात उसके बालमन को हमेशा सोच में डाल देती थी कि जिस कवि की कवितायें सुनकर उसे ताप चढ़ आता है उसी की कविताओं पर लोग वाह वाह कैसे कर लेते हैं .एक दिन कड़ा ह्रदय करके उसने कान में से कपड़ा हटा दिया और पूरा कवि सम्मलेन सुना.मनसुख का कलेजा मुंह को आने लगा लेकिन मनसुख ने हार नहीं मानी .किसी योद्धा की तरह कविता के मैदान में डटा रहा . वह ध्यान से सम्पूर्ण कवि सम्मलेन की प्रक्रिया का मनन करता रहा . कविवर की हर कविता पर लोग भेड़ के समान सर हिलाकर वाह वाह का उच्चारण करते थे .उसने बड़े गौर से आखिरी पंक्ति में बैठे हुए एक कवि को देखा जिसकी वाह वाह की ध्वनि अन्य सभी से अधिक थी. उसे रहरह कर नींद के झोंके आते थेबदन हर कविता पर कांप कांप जाता थारह रह कर शरीर में सिहरन होती थी रोंगटे तो परमानेंट खड़े हुए थे लेकिन उसके मुंह से किसी मिसाइल की तरह वाह वाह के गोले लगातार छूट रहे थे .मनसुख इस पहेली को नहीं बूझ सका. वह लगातार मनन करता रहा.तभी उसकी निगाह सबसे आगे की पंक्ति में बैठे हुए एक भद्र पुरुष पर पड़ी ..वह बड़ी शान्ति से कविता को सुन रहे थे .उनकी मुख मुद्रा भी पुष्प के समान खिली हुई थीवे लगातार सर हिला रहे थे कविता के बीच में ही वाह वाह कर उठते थेकविवर भी उनकी असमय वाह वाह से चौंक पड़ते थे . मनसुख ने निश्चय किया कि इन्ही सज्जन के समीप चलकर बैठना उचित होगा . वह धीरे धीरे सरकता हुआ उन सज्जन के पास पहुँच गया एकदम सटकर बैठ गया. मनसुख बड़े गौर से सज्जन का अवलोकन कर रहा था . तभी उसे उन सज्जन के मफलर के नीचे से झांकता हुआ एक पतला सा तार दिखाइ दिया . उसने और ध्यान से देखा ..उनके कुरते की दाहिनी जेब थोड़ी भारी महसूस हुई ….मनसुख ने उन सज्जन से सटते हुए जेब को छुआ तो अन्दर कुछ थर्राता महसूस हुआ. मनसुख और सट गया ….उसे बहुत धीमी गाने की आवाज़ सुनाई दी …” आजा आई बहार , दिल है बेकरार …. मेरे राजकुमारमन सुख का सर भी गाना सुनकर हिलने डुलने लगा. अचानक उसके मुंह से भी निकलाआहा ..क्या बात है कविवर ने कविता रोककर दो पल मनसुख को देखा और दोबारा कविता पाठ शुरू कर दिया. मनसुख ने धीरे से सज्जन से कहाहेड फोन का एक सिरा मेरे कानो में दे दोमैं भी अच्छे से सुनूंगा .सज्जन ने सकपका कर शॉल ऊपर सर तक ओढ़ लिया
अब मन सुख को समझ आया कि कवियों का सम्मान शॉल देकर क्यों किया जाता है .मनसुख ने उसी घडी निश्चय किया कि एक शॉल और एक आइपौड खरीदेगा औरहर कवी सम्मलेन में बैठकर सभी अंड बंड कवितायें पढ़ते कवियों को सुनेगा! सो ऐसा विचार कर मन सुख दोनों सामग्री खरीद लाया! शॉल ओढने से आदमी कवि सम्मेलन में जाने लायक गरिमा प्राप्त कर लेता है...मनसुख ने भी शॉल ओढने से कवि सम्मेलन में जाने की योग्यता प्राप्त कर ली!कविवर भी भारी प्रसन्न हुए कि उनकी काव्य प्रतिभा ने एक नाई के मन में कविता के भाव जगा दिए! अब होता क्या है कि मनसुख के मन के भाव पलटी खाते हैं.... श्रोता से कवि बनने की चाह उछालें मारने लगी मनसुख के मन में! तरह तरह के कवियों को सुनने के बाद उसे पूर्ण विश्वास हो गया था की वह भी एक उच्च कोटि का कवि बन सकता है! थोड़ी सा कविवर से कविता बनाने का ज्ञान मिल जाये तो वह भी लोगों के रोंगटे खड़े करने में सक्षम है..ऐसा सोचकर बड़े झिझकते झिझकते उसने कवि के पास उकडू बैठकर वह बात कही....जहां से कथा शुरू होती है! पाठक पुनः एक बार शुरूआती पंक्तियों पर जाने का कष्ट करें...." कवि वर...बताइए , मैं भी कवि बन जाऊंगा ? मैं भी आपकी तरह कविता कर सकूँगा ?"
" बेटा...कवि तो मैं तुझे बना दूंगा ..मगर मेरे जैसा बन पाना तेरे लिए इस जीवन में संभव नहीं है" कविवर ने बेहद गंभीर मुद्रा इख्तियार करते हुए कहा!
मनसुख ने झट से दांतों से अपनी जीभ काटी...धत ये क्या कह गया मैं " नहीं नहीं ..कवि वर ..आपके जैसा तो आज तक इस प्रथ्वी पर कोई हुआ ही नहीं है और आगे के दो चार सौ सालों में कोई होगा....और मैं तो कहता हूँ अगर कोई माई का लाल ऐसी कविता करने भी लगा तो समझो आपने ही पुनर्जनम लिया है"
कवि गदगदा गए अपनी प्रशंसा से....उन्होंने मनसुख को अपना चेला बनाना स्वीकार किया!
" देखो बेटा कविया के कई प्रकार होते हैं...तुम उझे बताओ तुम किस विधा में पारंगत होना चाहते हो"
" आप प्रकार बताएँ कविवर" मनसुख ने इस स्टाइल में कहा जैसे एक ग्राहक साडी की दूकान पर जाकर हर वैरायटी दिखने को कहता है !
कविवर ने कविता के थान दिखाने शुरू किये!मनसुख हर थान को भली प्रकार खोल कर जांचने लगा...
" बेटा पहले प्रकार की कविता वह होती है जिसमे तुक से तुक मिलानी पड़ती है..जैसे ये फ़िल्मी गाने होते हैं जैसे " सैयां दिल में आना रे, आके फिर जाना रे "
" समझ गया गुरु जी जैसे..." जीजी आई...मिठाई लायी.." मनसुख इतना भयंकर जोश में आया कि कवि महाराज कुर्सी से टपकते टपकते बचे!
हाँ हाँ ठीक है...ज्यादा जोश में आओ" कवि कुर्सी के अचानक डोलने से बौखलाए हुए थे! उन्हें एक बार तो लगा उनका सिंहासन डोल गया!
" दूसरा प्रकार वह होता है जिसमे भाव मायने रखते हैं...इसमें तुकबंदी जरूरी नहीं होती है! "
" जैसे ?"
" जैसे कि " मेरे नैना सावन भादो ..फिर भी मेरा मन प्यासा"
" समझ गया गुरु जी... आगे बढिए"
अगला प्रकार वह होता है जिसमे कोई तुक होती है.. कोई भाव! यह कविता का सबसे आधुनिक रूप है...इसमें श्रोता अपनी समझ के अनुसार कविता में भाव ढूंढ लेता है"
" वो कैसे गुरु जी....ये समझ नहीं आया" मन सुख ने अपनी खोपड़ी खुजाई!
हम्म..जैसे
" मैं खड़ा हूँ, एक पेड़ कि तरह मगर
कोई भी नहीं बनता घोंसला मुझमे
आह..क्या पत्तों की सरसराहट ही मेरे भाग्य में है
धूप की कुल्हाड़ी मुझे काटे जाती है
दूर एक खिड़की में कैद चाँद फडफडाता है
ये कैसा बोझ कंधे पर ढोता हूँ मैं..."

कवि इतना कहकर शांत हो गए....और मन सुख को निहारने लगे!
मनसुख को काटो तो खून नहीं..उसके सारे बाल चौकन्ने होकर खड़े हो गए थे! आँखों की पुतलियाँ फ़ैल कर दो दो गज की हो गयी थीं! बड़ी मुश्किल से थूक गटक कर बोल पाया " ये क्या था गुरुवर?"
गुरूजी हंस पड़े..." बेटा तुझे क्या समझ में आया"
" कुछ भी नहीं"
" बेटा यही सबसे सरल रूप है कविता का...लिखने वाले का अठन्नी दिमाग खर्च नहीं होता और सुनने वाले के प्राण निकल जाते हैं इस पहेली को बूझने में! अगर समझ पाए तो खुद को मूर्ख समझ कर हीन भावना का शिकार होने लगता है....इसलिए अपनी बुद्धि से जुगाड़ तुगाड़ कर कोई कोई अर्थ निकाल ही लेता है और अपनी ही विकट समझ पर वाह वाह करने लगता है!"
समझ गया गुरु जी...तुकबंदी भिड़ाने में दिमाग लगाना या कविता में भाव पैदा करना मेरे बस की बात नहीं है! मुझे तो यही प्रकार एकदम से जँच गया ....जब मैं स्कूल में मास्टरजी के सामने कुछ भी अल्ल गल्ल बकता था तो संटी पड़ती थी...यहाँ वाह वाह मिलेगी"
मनसुख के सर के चौकन्ने बाल शांत होकर अपने अपने स्थान पर बैठ गए! मनसुख ने उत्साहित होकर तुरंर एक कविता का निर्माण किया!
" अजीब सी उधेड़बुन मन के भीतर
कंकड़ पत्थर समेटकर बनाता हूँ एक पुल
जिस पर होकर सागर पहुँचता है आसमान के परे.."
कविता पाठ ख़तम का मनसुख ने देखा....सामने दीवार पर बैठी गौरैया कातर द्रष्टि से मन सुख को देख रही थी! उसके पंख बेचैनी से फडफड़ा कर रहम की भीख मांग रहे थे!
वाह वाह...कितनी बेतुकी कविता है " गुरु जी हर्ष से बोले " तेरा भविष्य उज्जवल है मनसुखा ..अब तेरे पैर कोई नहीं पकड़ सकता!"
अगले दिन से ही मनसुख की कविताओं के निर्माण का महा भयानक दौर प्रारम्भ हुआ...गुरु जी अपने कानों में कपडा ठूंसने लगे! गौरैया समेत अन्य सभी पक्षी...चूहे..बिल्ली अपना ठिकाना कहीं और ढूँढने सामान सट्टा लेकर निकल पड़े! मनसुख कवि सम्मेलनों में जाकर अंड बंड कवितायें सुनाता रहा.. मनसुख का नाम सुनने मात्र से लोगों के रोंगटे खड़े होने लगे!.शहर में आइपौड और वॉकमेन की बिक्री ४० प्रतिशत पढ़ गयी!अपना मनसुखा आधुनिक कवियों में शीर्ष स्थान पा गया! अभी अभी खबर आई है की मनसुख की एक कविता को कोई राज्य स्तरीय सम्मान प्राप्त हुआ है..और शॉल भेंट कर मन सुख को सम्मानित किया गया है!
मन सुख की पुरस्कार प्राप्त कविता निम्नानुसार है
" हर सवाल के भीतर छुपा है कोई ज्वार का खेत
जिसमे उगते हैं मकई के दाने और
सूरज की चौथी किरण से जाग उठते हैं
सवाल के अन्दर पनपते हुए जवाब...
ऐसे सवाल बन जाते हैं एक मिसाल
और उनके जवाब खोजती रहती है
स्वयं स्रष्टि...."