Thursday, September 17, 2015

विदा - 2

सबसे उदास और बदरंग मौसमों में मैंने चुने 

सबसे चटक रंग अपनी कुर्ती के लिए 
दुपट्टे में लगवाई गोटा किनारी और
आँखों में भर लिए नीलकंठ और नौरंगे के चमकीले रंग

एक ज़र्द और धूसर साँझ जब सीने से लिपट लिपट जाती तो
मैं भागकर सामने जनरल स्टोर जाती,
झटपट ले आती रंगबिरंगी जेम्स की गोलियां और
मेरी वाली ऑरेन्ज को उस सलेटी शाम के माथे पर सजा देती 
फिर पहनती अपनी ऑलिव ग्रीन फूलों वाली घेरदार स्कर्ट 
और मोज़िटो हाथ में लिये देर रात तक सुनती रहती
रेस्त्रां में गिटार थामे गाते उस नवयुवक को

जब रातें नाग बन आँखों पर कुंडली मारकर बैठ जातीं 
मैं मुल्तवी कर देती सोना और रात गुज़ार देती
चर्च में मिस्टर बीन के बराबर वाली कुर्सी पर बैठे हुए
नागों के पास नहीं है अच्छा हास्य बोध
आखिर थक कर वे वापस लौट ही जाया करते

पीली पड़ चुकी डायरी में कितनी बार रखे मैंने ताज़े फूल 
सूखी शाखों को हरियाया ओ ' हेनरी तरीके से 
लगभग ठहर चुके वक्त में मैं चली पागलों की तरह
ठहरने को खारिज करते हुए,
बंद पड़ी घड़ियों पर दिन में सिर्फ दो बार नज़र डाली
वक्त सही न था पर मैंने जब देखा सही देखा

मेरे भीतर का शहर जब जब उजड़ा 
मैं उन सुनसान सड़कों पर भागी पायलें पहनकर
घुंघरुओं के शोर से कुचला अकेलेपन की कातर चीखों को

जब माथे पर गहरी नींद सोया एक भूला बिसरा चुम्बन अंगड़ाई लेता
जब उन गुज़रे सालों की कोई बेरहम स्मृति किवाड़ खटखटाती
जब स्वप्न शत्रु की तरह पेश आने लगते 
तब मैं उन प्रेमिकाओं के बारे में सोचती जिन्हें जन्मों जन्मों तक श्राप मिला है विरह में होने का 
प्रेम में जीती मरतीं उन औरतों की गाढ़ी पीड़ा को 
मरहम बनाकर लेप दिया अपने एक नन्हे से दुःख पर

इस तरह मैंने सबसे बुरे दिनों में भी जुटाया
अपने हिस्से की ख़ुशी का एक एक मॉलिक्यूल

सिर्फ तुम जानते हो कि ये सारी मशक्कत थी
महज एक वादे को निभाने के लिए वरना 
उदास औंधे मुंह लेटकर रोते रहना कितना आसान था

और देखो .. मैं तुम्हे तब तक क्रूर मानती रही 
जब तक जान नहीं गयी कि 
दरअसल तुम मुझे क्या सिखाना चाहते थे

अब मैं सुख का बंदोबस्त नहीं करती 
सुख को चुनती हूँ ...

बात बस कुल इतनी सी कि 
विदा मुलाकातों की डोर का टूटना और 
दो आत्माओं के बीच स्मृतियों की कभी न खुलने वाली एक पक्की गाँठ का लगना है....

और अब कौन जानता है यह मुझसे बेहतर कि 
हर विदा ब्रेकअप नहीं होती....