Friday, June 3, 2011

बरसात...तुम ..आखिरी मुलाक़ात..और थोड़ी सी मैं भी

बारिश में हिचकी क्यों आती है... कई साल पहले तुमने ये सवाल पूछा था! "मुझे क्या पता...तुम्हे बारिश से एलर्जी होगी ज़रूर!" मैंने तुम्हारे सवाल को हंसी में घोल दिया था!
आज यही सवाल मुझे तुमसे पूछने का मन कर रहा है " तुम बताओ न..बारिश में हिचकी क्यों आती है?"


कितनी अजीब सी बात है न कभी जिस जगह हम दूसरे को खड़ा देखते हैं... खुदा के हिसाब किताब में हमें भी उस जगह पर कभी न कभी ज़रूर खड़े होना पड़ता है! तब बीता हुआ वक्त बहुत तेज़ी से जिस्म और दिमाग में सरगोशी करता है! तुम्हारी हिचकियों की वजह का नाम भी मैं जानती थी इसलिए जानकर भी जवाब देने से बचती थी... मगर मेरी हिचकियों की वजह तुम हो.. तुम ये कभी जान न पाओगे !

साल पे साल बीतते जाते हैं.. हम मशीन या कभी कभी उससे कुछ ज्यादा की तरह जिंदगी जीते या यूं कहो जिंदगी को काटते जाते हैं! पर हैरत होती है सोचकर कि इन गुज़रे सालों का एक आवारा लम्हा मशीन से इंसान बना जाता है!ऐसे लम्हों की दिमागी स्तर पर कोई कीमत नहीं...मगर दिल के अनमोल खजाने तो यही हैं बस! तुम पढ़ते तो सोचते जाने क्या क्या लिख रही है!

बरसात रुकने का नाम नहीं ले रही है और हिचकी भी... तुम कहते थे ना कि जिंदगी में अगर तुम तकलीफ में होगी तो ये बात मुझे किसी और से पता नहीं चलना चाहिए! मैं सुनकर कितनी खुश हुई थी... इसलिए नहीं कि तुम मेरा दुःख बांटने आओगे बल्कि इसलिए कि अपने दर्द को तुमसे बात करने की वजह बना लूंगी मैं! पर इस लम्बे अरसे में तुमसे बात न हुई... तुम कहीं ये तो नहीं सोचते कि इतने साल मैं रोई ही नहीं?

जब बारिश आती है तो कुछ काटता है..! न मालूम क्या... शायद आंसू ही पैने हो जाते हों!



" काले घुमड़ते बादलों में छुपकर कोई रोता है क्या...?" ये तुम्हारा दूसरा सवाल था बारिश पर!
" कोई नहीं रोता... बच्चे बादलों में एक दूसरे पर गुब्बारे फोड़ते हैं!" फिर से सवाल को हंस के उड़ाया था मैंने! शायद आज तुम अपने बच्चों के साथ बारिश में खेलते हुए मेरी बात याद करते होगे और सोचते होगे...कितना सही कहती थी मैं! और मैं तुम्हारा सवाल याद करके सोचती हूँ...तुम ही सही थे!
आज ये सवाल मैं पूछना चाहती हूँ..मगर किससे पूछूं ?


बारिश की बूंदों के साथ तुम घुलते जाते हो मेरे अन्दर! शायद यही वजह होती है मेरे बारिश में भीगने की और कभी कभी नहीं भीगने की! बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है...ये मुझे खुद से मिलाती है , तुमसे मिलाती है!तुम रोज़ नहीं आ सकते इसलिए बारिश.. तुम रोज़ आ जाया करो!

बारिश तेज़ हो रही है...और तेज़! और तुम याद आ रहे हो ..तेज़ और तेज़! कभी ऐसी ही किसी बरसात में तुम्हे जीते हुए एक नज़्म लिखी थी...

जेहन से जाती ही नहीं
वो भीगी शाम
छलक उठी थी
अश्कों में डूबकर


याद है मुझे तुम्हारी ठंडी छुअन
जिसके एहसास से मैं
आज भी सिहर उठती हूँ


उफ़,तुम्हारी वो सिसकियाँ
सीधे दिल में उतर रही थीं
पूरे पहर खामोश थे हम
और शाम गीली हों रही थी

अरसा बीत गया...
पर माज़ी की वो भीगी शाम
खिंची चली आई है
मेरे आज का सिरा पकड़कर
यूं तो जिस्म सूखा है पर
रूह तो आज तक भीगी हुई है

शायद आखिरी मुलाकातें ऐसी ही होती हैं....