Saturday, August 30, 2008

दर्द बांटना श्रीमान व्यंगेश्वर जी का

श्रीमान व्यंगेश्वर जी से तो आप सभी परिचित होंगे...अरे वही जो बड़े अच्छे अच्छे व्यंग्य लिखते हैं.! पूरी दुनिया में श्रेष्ठ व्यंगकारों में गिनती होती है इनकी! हमारा भी सौभाग्य है की हम इनके मित्रों में शामिल हैं! हमें इसलिए भी इनका मित्र बनना पड़ा क्योकि व्यंग इनके खून में रचा बसा है...न जाने कब किस पर व्यंग्य लिख डालें कोई भरोसा नहीं! बर्तनवाली,धोबी,अडोसी पडोसी,किराने की दूकान वाला,पानवाले से लेकर कप प्लेट, झाडू,कुर्सी वगेरह निर्जीव चीज़ें भी इनके व्यंग्य का शिकार होने से नहीं बच सकी हैं! इनकी माँ बताती हैं की जब ये पैदा हुए तो पैदा होते ही अस्पताल के कमरे को और डॉक्टरों को देखकर ऐसी व्यंग्य भरी मुस्कराहट फेंकी की डॉक्टर तिलमिला गया और इन्हें गोद में उठाकर प्यार तक नहीं किया !

लेकिन इसके दो साल बाद जब इनका छोटा भाई पैदा हुआ तो उसी अस्पताल में हुआ...डॉक्टर को पता चला तो उसने कमरे की हालत सुधार ली थी ताकि फिर से व्यंगेश्वर जी के कटाक्ष भरी नज़रों का सामना न करना पड़े...लेकिन दो वर्ष के व्यंगेश्वर अब बोलना सीख गए थे! डॉक्टर के सफ़ेद एप्रन पर पीला सब्जी का दाग देखकर अपनी तोतली आवाज़ में बोल पड़े " घल में निलमा (निरमा) नहीं आता क्या ?" डॉक्टर को बुरा लगा! बाद में पिता जी को बोल दिया" अगर अगला पैदा हो तो कोई और अस्पताल देख लेना"! व्यंग करने की आदत को देखकर ही पिता ने स्कूल में व्यंगेश्वर नाम लिखा दिया! तब से लेकर स्कूल की अव्यवस्था,मास्टरों का निकम्मापन,खेल की टीम सिलेक्शन में घपला आदि मुद्दों पर खूब व्यंग्य लिखे! बाद में जैसे जैसे बड़े होते गए, देश दुनिया का कोई ऐसा मुद्दा नहीं रहा जिस पर व्यंगेश्वर जी की कलम का वार न हुआ हो!

कल हम अचानक उनके घर जा पहुंचे...देखा व्यंगेश्वर जी बड़े चिंतित नज़र आ रहे थे! दस मिनिट तक भी जब पानी को नहीं पूछा तो हम जान गए की सचमुच कोई गहरा दुःख इनके मन को भेद रहा है!
हमने पूछा "क्या हुआ? कोई परेशानी है क्या?"
क्या बताएं...घोर पीडा हो रही है!"
अरे ....सिर विर दर्द कर रहा है क्या" हमने भी आतुरता में पूछा!
उन्होंने हिकारत से हमें देखते हुए कहा " तुम साले स्वार्थी जीव...अपनी पीडा के अलावा कुछ दिखाई देता है या नहीं"
हम खिसिया कर रह गए " माफ़ करिए...क्या किसी और को कोई तकलीफ है? बच्चे,भाभीजी तो स्वस्थ हैं"?
तुम कभी घर ,परिवार से आगे की सोचोगे की नहीं?" हिकारत अभी तक बरकरार थी!
सुनकर गुस्सा तो ऐसा आया की बोल दूं " भाड़ में जाये तेरी पीडा , एक तो तेरे कष्ट पूछ रहा हूँ ऊपर से बकवास कर रहा है" मगर याद आया की दर्द बाटने का एक उसूल है कि आपका क्लाइंट जितना दुखी होगा उतना ही बिफरेगा! इसका तात्पर्य कि दुःख बहुत ज्यादा है!ज्यादा दुःख बांटना यानी ज्यादा पुण्य प्राप्त करना!दूसरी बात ये कि व्यंगेश्वर जी कि खरी खोटी सुनाना यानी एक एक व्यंग्य खुद के ऊपर लिखवाना.....इन्ही सब बातों को सोचकर हमने बुरा नहीं माना और स्वर को भरसक कोमल बनाते हुए पूछा " कुछ तो बताइए...हुआ क्या?

देखते नहीं हो...देश में भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी कितना बढ़ गए हैं....
हम्म...हमने समर्थन किया!
क्या करूं दिल को बड़ी पीडा होती है अपने देश की ये दुर्दशा देखकर! जहां देखो वहाँ कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, रिश्वत, लालफीताशाही का बोलबाला है...गरीब और गरीब हो रहा है...अमीर और अमीर हो रहे हैं! " कहकर व्यंगेश्वर जी फिर से सर पकड़कर बैठ गए!
हमारी ताली बजाने की इच्छा हुई!
" काश कोई ऐसा चमत्कार हो जाए ,देश से सारा भ्रष्टाचार ,गरीबी गायब हो जाए हे प्रभु, मेरे भारत देश में रामराज ला दो!" व्यंगेश्वर जी सचमुच दुखी थे! हम भी दुखी हो गए और थोडा खुश भी की फिर एक बार दर्द बांटने का अवसर प्रभु ने दिया!
हमने उन्हें ढाढस बंधाते हुए कहा " बुरा न मानिए मित्रवर..लेकिन आपको ऐसी प्रार्थना नहीं करनी चाहिए!भगवन जो करता है अच्छे के लिए करता है !"
" अजीब आदमी हो तुम! कैसी गद्दारों जैसी बात करते हो...."
अरे पूरी बात तो सुनिए.." हमने बीच में ही उनकी बात लपकी वर्ना एक गाली पड़ने के पूरे पूरे आसार थे!" ये बताइए आपने सबसे अधिक व्यंग्य किन मुद्दों पर लिखे"
" इन्ही राष्ट्रीय और सामजिक समस्याओं पर..." थोडा चिढ़कर उन्होंने जवाब दिया!
" और ये व्यंग्य ही आपकी जीविका चलते हैं...न केवल धन बल्कि इन्हें लिखकर आपको यश भी प्राप्त हुआ है"! हमने पूछा
" हाँ हाँ...कई पुरस्कार जीते हैं हमने" व्यंगेश्वर जी की की गर्व भरी वाणी फूटी!
" जिन समस्याओं पर लिखकर आपको ये यश और धन प्राप्त हुआ...उन्ही को लानत भेज रहे हैं आप? क्या शोभा देता है आप जैसे पढ़े लिखे व्यक्ति को? " हमने थोडा सा दुत्कार टाइप दिया!
"क्या मतलब आपका" व्यंगेश्वर जी थोडा चकराए!
" मतलब साफ़ है मेरे भोले मित्र...फ़र्ज़ करो यदि देश से ये सारी समस्यायें गायब हो जाएँ तो तुम्हारे पास व्यंग्य लिखने के लिए क्या मुद्दा रह जायेगा? कौन पढेगा तुम्हारे व्यंग्य? " हमने समझाया!"
हम्म...आपकी बात में तो दम है" व्यंगेश्वर जी थोड़े कन्विन्स हुए!
आप ही बताइए...सतयुग में क्या कोई भी महान व्यंग्यकार पैदा हो सका? नहीं न...क्योंकि रामराज में कोई अव्यवस्था नहीं थी!
" इसलिए मैं कहता हूँ...आपको तो प्रार्थना करनी चाहिए की ये समस्यायें सुरसा के मुख की तरह बढती जाएँ ताकि आपके पास विषयों का कभी अकाल न पड़े""
व्यंगेश्वर जी ने उठकर हमें गले लगा लिया और गदगद स्वर में बोले " मित्र..मैं तुम्हारा सदा आभारी रहूँगा! तुमने मेरा दुःख दूर कर दिया! अब मैं ऐसी फिजूल बातें कभी नहीं सोचूंगा"! इतना कहकर व्यंगेश्वर जी ने कागज़ कलम उठाया और शांत मन से व्यंग्य लिखने में जुट गए!
हम बहुत प्रसन्न हुए...हमने न केवल दर्द बांटा बल्कि इस बार तो दूर भी कर दिया! ईश्वर शीघ्र ही पुनः किसी का दर्द बांटने का अवसर प्रदान करे ...

Sunday, August 24, 2008

क्यों नहीं लिखते एक ऐसी नज़्म..


एक मुट्ठी धूप, चन्द कतरे रात के
एक बूढा आसमान और
उस पर टंगे चाँद को
समेटते हो अपने जेहन में और
रच देते हो एक नज़्म

कभी मेरे घर आकर देखो
यहाँ भी है एक बूढा बाप
शायद एक आध मुट्ठी अनाज भी मिल जाये
चन्द कतरे आंसुओं के
टूटी खाट के सिरहाने पड़े हैं
और एक चाँद यहाँ भी है जो
अक्सर भूखा सोता है
क्यों नहीं लिखते एक नज़्म
उधडी और फटी जिंदगियों पर..

मोहब्बत और बेवफाई पर
रंग दिए हैं तुमने ढेरों कागज़
आँखें भर आती हैं लोगों की
जब पढ़ते हैं तुम्हारी दर्द में डूबी नज़्म
कभी आओ इधर भी और देखो
मेरी माँ पड़ी है बिस्तर पर खून उगलती
मांग रही है दिन रात मौत की दुआ
पर कमबख्त वो भी नहीं फटकती इधर
क्यों नहीं लिखते एक नज़्म
मौत की इस बेवफाई पर...

तुम जानते हो ,
कोई नहीं देखना चाहता
चाँद ,तारों की हसीन दुनिया के परे
जब फूल और तितली पर बन सकती है
एक उम्दा नज़्म तो फिर
क्यों कोई नाली में भिनकते मक्खी मच्छर
और फटी एडियों पर लिखे कोई कविता

पर तुम लिखो....
कोई पढ़े या न पढ़े
पर तुम्हे मिल जायेगा कोई न कोई पुरस्कार
आखिर निर्णायकों का ज़रूरी है
संवेदनशील होना भी...

Wednesday, August 20, 2008

ठसाठस भरी बस में तीन घंटे

बड़े दिनों बाद इस बार बस में सफ़र करने का अवसर प्राप्त हुआ....ब्लॉग बनाने के बाद से एक फायदा ज़रूर हो गया है! अच्छा अनुभव हो तब तो अच्छा है ही...ख़राब हो तो भी एक सुकून मिलता है की चलो एक पोस्ट का मसाला मिल गया! कहने का मतलब ये कि इस ब्लॉग ने मुश्किलों में भी एक आशा की किरण तो दिखा ही दी है!खैर सीधे मुद्दे पे आते हैं....

हुआ यूं कि इस बार रक्षाबंधन पर सौभाग्य से तीन दिन की छुट्टी मिल गयी तो घर चले गए!सबसे बड़े संकट की बात ये होती है जब घर जाना होता है कि भोपाल से शिवपुरी के लिए कोई ट्रेन नहीं है! झांसी या ग्वालियर तक ट्रेन से जाओ...फिर वहां से बाई रोड ही जाना पड़ता है! अब चाहे कहीं से भी जाओ रोड तो गड्डे वाली ही मिलनी है! तो भैया जैसे तैसे पहुँच तो गए शिवपुरी स्लीपर बस में....रात को सोते सुवाते! बाकी बची खुची नींद घर जाकर पूरी कर ली!लेकिन असली परीक्षा अभी बाकी थी!18 तारीख को वापसी थी...लौटते में ग्वालियर में थोडा काम था तो सोचा ...बस से ग्वालियर चलते हैं ,वहाँ से ट्रेन से भोपाल आ जायेंगे!बस...यही सोचकर गलती कर बैठे! घर वालों ने आगाह भी किया कि त्यौहार का टाइम है...बहुत भीड़ होगी अभी! हमने मुस्कुराते हुए गर्व से अपने मित्र को जो शिवपुरी में एस.डी.ओ.पी. है, फोन लगाया और उससे दोपहर की किसी फास्ट बस में सीट बुक करवाने को कहा! मित्र ने तुंरत एक सिपाही को पाबन्द कर दिया! हम इत्मीनान से बस स्टैंड पहुंचे! सिपाही वहाँ पहले से मौजूद था! दस मिनिट में बस आई...आगे से दूसरी सीट हमारे लिए बुक थी! हमारे बाजू में एक और लड़की बैठी थी विंडो सीट पर... मन तो किया उससे कह दें कि विंडो सीट पर हम बैठेंगे मगर लिहाज कर गए और चुपचाप उसके बगल में बैठ गए! दो जनों की ही सीट थी! छोटी सी बस थी जिसमे टोटल चौबीस लोगों के लिए जगह थी! भगवान कसम... जब बैठे थे तो बिलकुल अंदाजा नहीं था कि भला आदमी ७० सवारी उस छोटी सी बस में चढाने वाला है वरना नहीं चढ़ते! बस चली....दस मिनिट बाद ही रुक गयी और फिर रुकी रही जब तक कि ठसाठस भर नहीं गयी! बैठने की जगह तो थी नहीं सो लोगों ने खड़े खड़े ही ठंसना शुरू कर दिया! दोनों सीटों के बीच कि गली में ठंसे लोग, पैरदान पर लटके लोग,बोनट पर बैठे लोग,और तो और ड्राइवर की सीट पर भी आधे बैठे लोग....बाप रे, कितने लोग! हमारी सीट के बगल में तीन लोग खड़े थे जो कि हम पर ही चढ़े चले जा रहे थे....एक दो बार मना किया कि " भैया जरा अपने भर खड़े हो लो" जब आग्रह के कोई असर नहीं हुआ तो हमने भी भाई लोगों को मुक्के मारना शुरू कर दिया! भाई लोग मुक्का खाते, एक बार पलट कर हमें देखते और पहले से भी ज्यादा मजबूती से जमे रहते!बगल वाली लड़की बार बार हमें देखती और चुपचाप आँखें बंद कर लेती....गुस्सा तो ऐसा आया कि कह दें " ऐसे नहीं चलेगा...आधी दूर तू खिड़की के पास बैठ ,आधी दूर हम बैठेंगे!" पर मालूम था ...वो नहीं हटने की!
हम भी अपनी सहन शक्ति की परीक्षा ले रहे थे!पर अब तो हद ही हो गयी....जब बेरहम कंडक्टर ने उस बस को दस किलोमीटर बाद रोककर चिल्लाना शुरू कर दिया " ग्वालियर...ग्वालियर.." उसकी आवाज़ पर भीड़ का एक रेला बाहर से खिंचा चला आया!बस में से आवाजें उठीं " अरे...अब क्या हमारी खोपड़ी पर बिठाएगा सवारी?" कंडक्टर ने बेहद संतुलित स्वर में जवाब दिया " चिंता नहीं...सबको जगह मिलेगी बैठने की" न जाने क्या बात थी उसके आश्वासन में...भीड़ संतुष्ट होकर अन्दर समा गयी!

तभी पीछे से एक औरत जो अपने बच्चे को गोद में लिए खड़ी थी, अचानक उफन पड़ी " आग लगे, धुंआ लगे, तेरी ठठरी बंधे....मुझे सीट दे, नहीं तो पैसे वापस कर दे मेरे"
कंडक्टर भी उफना " कहाँ से दे दूं सीट...मेरे पास कारखाना है सीटों का?"
महिला फिर दहाडी " तू ही तो कह रहा था कि बिठाकर ले जायेगा.."
तो सबर नहीं करेगी क्या जरा भी...अभी बस खाली होगी तो तू ही पसर जाना सीट पर"
जैसे तैसे महिला शांत हुई...पर बड़ी देर तक अन्दर ही अन्दर बड़बड़ाती रही!


अब तक मुक्के मार मार कर हमारा मुक्का दुखने लग गया था...महिला शांत हुई तो हम उफन पड़े कंडक्टर पर " अब तू ले चल गाड़ी सीधे थाने पर..तेरा चालान कराती हूँ !परेशान कर दिया लोगों ने धक्के मार मार कर " अब कंडक्टर थोडा सीधा हुआ और तुंरत उसने फरमान जरी किया " मैडम की सीट के पास कोई खडा नहीं होगा"
थोडी देर को सब इधर उधर हो गए...लोगों को एहसास हो गया कि हम सचमुच कोई मैडम हैं! तभी एक आदमी जो धोती कुरता पहने था...उसका कुरता उड़ उड़कर हमारे चेहरे पर आने लगा....कुछ कहने ही वाले थे ..इतने में उस आदमी ने हमारे मनो भावों को भाँपते हुए कुरता अपनी धोती में खोंस लिया और कष्ट के लिए माफ़ी भी मांग ली!

इतने ही कष्ट काफी नहीं थे....अब एक सज्जन को बीडी की तलब लग आई! बड़े आराम से बीडी सुलगाई और पहला सुट्टा मारा...बदबू का भभका सीधे हमारी नाक में घुसा! हम चिल्लाये " बीडी फेंक..." किसी ने भी हमारी बात का समर्थन नहीं किया मगर कंडक्टर ने उसके मुंह से बीडी निकाली और खिड़की से बाहर फेंक दी! उस आदमी ने जलती निगाहों से हमें देखा मगर हमारी निगाहें उससे भी ज्यादा जल रही थीं!पता नहीं..कैसे लोग बीडी पीने वालों को सहन कर लेते हैं!

डेढ़ घंटे चलने के बाद मोहना नाम का स्टेशन आया...यहाँ गाड़ी दस मिनिट खड़ी होनी थी! धन्य हैं रे भारतवर्ष के लोग....खड़े खड़े भी पकोडे खाने से बाज नहीं आये!ठीक हमारे बगल में एक आदमी पकोडे का दोना भर लाया...एक हाथ से दोना पकडे, एक हाथ से खाए और बाजू वाली सीट से कमर टिकाकर खडा होए! तीन चार पकोडे ही खाए होंगे की एक दचका लगा और दोना उछला और पकोडे बिखर गए...हर आदमी के कंधे पर या सर पर छोटा बड़ा पकोडा नज़र आने लगा! हम पर भी गिरा ..जिसे हमने तत्काल हटाया और बगल वाले के पैर पर गिरा दिया! हमने संतोष की सांस ली कि चलो इस व्यक्ति को दही बड़ा अथवा समोसा विथ चटनी की इच्छा नहीं जाग्रत हुई वरना क्या हाल होता! हमने देखा हमारे अलावा किसी और के माथे पर कोई शिकन तक नहीं थी..मानो पकोडे उछलना एक अत्यंत सामान्य घटना हो!

अब तक सर में भारी दर्द शुरू हो गया था...तभी कंडक्टर ने किसी से बात की जिससे हमें मालूम हुआ की इस बहादुर आदमी को अभी दो बार और शिवपुरी से ग्वालियर तक ऐसे ही लटक कर जाना है! ११२ किलोमीटर का सफ़र हमने तीन घंटे में पूरा किया! जैसे ही ग्वालियर बस स्टैंड पर पहुंचे...नीचे उतरे तभी बगल से धप्प की आवाज़ आई...हमने तत्काल अपनी गिनती सुधारी! उस बस में ७० नहीं अस्सी आदमी थे...दस आदमी छत की शोभा भी बढा रहे थे! उतारते ही कंडक्टर ने पूछा " मैडम...तकलीफ तो नहीं हुई न?"
हमने अपने होंठ फैलाकर मुस्कराहट बनायीं और कहा " नहीं भैया..बिलकुल नहीं" और आगे बढ़ लिए!

इस पूरी यात्रा पर चिंतन करने के बाद हमने कुछ निष्कर्ष निकाले जो निम्नानुसार हैं..
१- भारतीय इंजीनियर बहुत दूरदर्शी होते हैं! चौबीस सवारी की क्षमता वाला वाहन उन्हें बनाने को दिया जाये तो वे परिस्थितियों का बुद्धिमत्ता पूर्ण आंकलन कर असीमित क्षमता वाला वाहन तैयार करते हैं ..वो भी दी गयी लागत में!
२- भारतीय लोग कठिन से कठिन परिस्थितिओं में भी खाना पीना नहीं त्याग सकते! सलाम है उस जीवट इंसान को जिसे भीड़ में ठंसे ठंसे भी चाट पकोडे खाने की सूझ सकती है!
३- भारतीय बस का कंडक्टर बहुत वीर पुरुष होता है जो बार बार लगातार ऊबड़ खाबड़ सड़क पर सफ़र करके भी अपनी ऊर्जा नहीं खोता और इस प्रकार सभी को वीर बनने को प्रेरित करता है!
आशा है इस प्रसंग से आप सभी को भी बस में सफ़र करने के लिए आवश्यक बल और प्रेरणा प्राप्त हुई होगी...धन्यवाद!

Tuesday, August 19, 2008

एक पुरानी ग़ज़ल

बहुत दिनों से ब्लॉग से दूर थी....आज कुछ नया तो नहीं एक पुरानी ग़ज़ल ही पोस्ट कर रही हूँ!बहुत दिनों से कुछ नया नहीं लिखा!शायद एक दो दिन में कुछ लिखूं...

जब से तकदीर कुछ खफा सी है
जीस्त भी मिलती है गैरों की तरह

शब के साथ ही गुम होते हैं
वफ़ा करते हैं वो सायों की तरह

बेताब तमन्नाओं को हकीकत से क्या
उड़ती फिरती हैं परिंदों की तरह

कहकहे लुटाता है सरे महफ़िल
तनहा रोता है दीवानों की तरह

बंद कमरे बताएँगे हकीकत उनकी
जो हैं दुनिया में फरिश्तों की तरह

पल में ग़म भूल खिलखिलाते हैं
खुदा,कर दो मुझे बच्चों की तरह

Thursday, August 7, 2008

किस्सा -ए -होस्टल ( भाग २)

पिछली बार वो तीन दिन होस्टल में और इस बार का अनुभव मात्र तीन घंटे का था...दिल्ली के एक गर्ल्स होस्टल का! साल भर पहले सबसे छोटी बहन मीडिया का कोर्स करने के बाद दिल्ली में नौकरी कर रही थी! और वहीं के एक गर्ल्स होस्टल में रह रही थी! उसी दौरान दिल्ली किसी काम से जाना हुआ!काम सुबह से शाम तक का ही थी...रात को भोपाल के ट्रेन थी! इसलिए शाम के तीन घंटे मैंने अपनी बहन के साथ उसके होस्टल में बिताए!

उसके कक्ष में उसके अलावा तीन लडकियां और थीं ..जो की लगभग २१-२२ साल की होंगी और सभी किसी न किसी प्राइवेट संस्थान में कार्यरत थीं!मैं वहाँ पहुंची...दीदी दीदी कहकर तीनों ने खूब सम्मान दिया! थोडी देर तो बेचारी मेरी उपस्थिति का ख़याल करते हुए सोशल और घरेलू इशूस पर बातें करती रहीं! लेकिन आधे घंटे में ही ये इशूस गायब हो गए और अब शुरू हुईं असली इशूस पर चर्चा! हम अपनी हंसी को छुपाने के लिए एक पत्रिका में मुंह घुसाए रहे!
पहली- पता है..आज पूरे १५ दिन हो गए ऑफिस जाते जाते पर अभी तक एक भी ड्रेस रिपीट नहीं की! और अभी एक हफ्ता तो और निकल जायेगा!
दूसरी- तू 15 दिन के बात कर रही है, मुझे एक महीना हो गया!
तीसरी- चलो छोडो ये बात...इस सन्डे को मूवी देखने चलें!
दूसरी- इसके पास ज्यादा ड्रेस नहीं है इसलिए टॉपिक बदल रही है!
सब की सब खी खी करके हंस पड़ीं! तीसरी का मुंह उतर गया! कुछ मिनिटों तक खामोश रही! शायद मुँहतोड़ जवाब देने की तैयारी कर रही थी! उठकर गयी और अलमारी में से एक पैकेट उठाकर लायी! उसके अन्दर एक पिंक कलर का टेडी बीयर था! पहली और दूसरी के मुंह से आह निकल गयी!
" ए दिखा न...कब लिया ,कहाँ से लिया"
" हर्षित ने दिया" तीसरी ने गर्व से इठलाते हुए कहा !आगे बोली.."तुझे भी तो विकी ने एक टेडी बीयर दिया था न..जरा दिखा"
दूसरी थोडा सकपकाई " रहने दे न...चल छोड़"
"अरे नहीं प्लीज़ दिखा न...हम तो सब दिखा देते हैं एक तू है की भाव खाती है" तीसरी इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ने वाली थी!
पहली ने भी तीसरी का साथ देते हुए दूसरी पर जोर डाला!
दूसरी मन मसोस कर उठी और अपनी अलमारी में से एक भूरे रंग का टेडी बीयर उठा लायी! जो की साइज़ में पिंक टेडी बीयर का चौथाई था! और सस्ता भी दिख रहा था! तीसरी के चेहरे पर कटाक्ष भरी मुस्कराहट आ गयी!
पहली बोली " कुछ भी हो..हर्षित की बात ही अलग है"
" विकी भी मुझे इतना ही बड़ा टैडी बियर दे रहा था पर मैंने तो कह दिया..न रे बाबा..छोटा दो! मैं कहाँ होस्टल में इतना बड़ा रखती फिरूंगी!" दूसरी ने सफाई देने की कोशिश की जिसे पहली और तीसरी ने अपनी व्यंग भरी मुस्कराहट से असफल कर दिया!

आगे करीब उनकी एक घंटे की बातों से हमें पता चला कि तीनों के एक एक अदद बॉय फ्रेंड हैं और उनमे से दो के पहले भी एक एक अदद बॉय फ्रेंड रह चुके हैं! तीनों होस्टल में खाना बनाने वाले लड़के की स्मार्ट नेस पर फ़िदा हैं और एक लडकी को अपनी खूबसूरती पर खासा घमंड है जिसका बयान वो कुछ इन शब्दों में करती है! " सचमुच यार सुन्दर होना भी एक मुसीबत है...रोज एक नया लड़का पीछे पड़ जाता है.. इससे तो तुम लोग ज्यादा सुखी हो!जब चाहे कहीं भी जा सकती हो कोई टेंशन ही नहीं!" पता नहीं चला इसने अपनी सुन्दरता की तारीफ़ की या बाकी दोनों की बुराई करी!
दोनों लडकियां सुनकर कुढ़ जाती हैं, उनमे से एक बोलती है " ऐसा नहीं है वो तो हम लोग बोल्ड हैं..सही कर देते हैं पीछे आने वालों को! तेरे जैसे गेले बने रहे तो हो गया काम"
अब हिसाब बराबर हो गया है! बातचीत के दौरान ये हिसाब बराबर करने का सिलसिला लगातार चलता रहता है!
हमारी ट्रेन के आने में डेढ़ घंटा बाकी है....इस दौरान एक और दिलचस्प वाकया घट गया!
चटपटी बातों का दौर जारी ही था तभी पहली के बॉय फ्रेंड गौरव का फोन आ गया! लपक कर फोन उठाया...बात शुरू हुई जिसमे गौरव ने कहा कि वो होस्टल के सामने वाली एस.टी.डी. पर इंतज़ार कर रहा है! इतना सुनते ही पहली के जिस्म में ग़ज़ब की फुर्ती आ गयी! जब से झुतरी बनी बैठी थी पलंग पर! झटके से उठी और नहाने चल दी! दूसरी बोली " अब नहा क्यों रही है..ऐसे ही चली जा न..बेचारा नीचे ठण्ड में इंतज़ार कर रहा है" ( आपको बता दें कि ये घटना जनवरी की है)"
वो कहे का बेचारा...बेचारी तो मैं जो इतनी ठण्ड में ठंडे पानी से सर धो रही हूँ" कहकर पहली स्नान करने चल दी! करीब बीस मिनिट बाद गीले बालों में वापस आई! इस बीच गौरव का फोन लगातार बजता रहा! जिसे किसी ने नही उठाया! अब शुरू हुई कपडों की कवायद! दस मिनिट की मशक्कत और सहेलियों के मार्गदर्शन के बाद एक स्लीवलेस ड्रेस सिलेक्ट हुई! इसी बीच दूसरी ने कह दिया " भला हो गौरव का...आज नहा तो ली वरना दो दिन से तो बाथरूम का मुंह नहीं देखा था"तीसरी हस दी...पहली सजने में व्यस्त थी इसलिए लोड नहीं लिया! दूसरी बोली " बाल तो पोछ ले"
" नहीं..गीले बाल ज्यादा अच्छे लगते हैं , गौरव को वेट लुक ही ज्यादा अच्छा लगता है!" इतना कहकर पहली नीचे जाने लगी! इतने में दूसरी ने फिर चुटकी ली " अरे...कोई माचिस तो लेती जा..गौरव तो अब तक जम गया होगा"
पहली ने पीछे मुड़कर देखा और इतराती हुई चल दी! बाकी दोनों जोर से ठहाका लगाकर हँस दी!

अब हमारी ट्रेन का टाइम हो गया था...पत्रिका से मुंह हटाया और चल दिए!ट्रेन को भी उसी दिन टाइम पर आना था...काश थोडा लेट हो गयी होती तो इसका क्या बिगड़ जाता!गौरव से मुलाक़ात का किस्सा नहीं जान पाए, इसका अफ़सोस रहा!
तो ये था होस्टल का दूसरा अनुभव! इसके बाद हम एक साल और पुलिस अकादमी के होस्टल में रहे! वहाँ के काफी किस्से हैं जो एक पोस्ट में नहीं समा सकते इसलिए फिर कभी किश्तों में बताएँगे....नमस्ते!

Friday, August 1, 2008

खुशियाँ हमसे बचके जायेंगी कहाँ


कल की बारिश में खुशियों को भीगते ,मचलते,नाचते और तैरते देखा और छोटी बहन सिन्नी ने घर के अन्दर से कैमरा लाकर इन अनमोल पलों को कैद कर लिया!तेज़ बारिश में वो ३० मिनिट! वाकई ऐसा लग रहा था जैसे मुस्कराहट बरस रही हो आसमान से!कचरा बीनने वाले बच्चों को बारिश का उत्सव मनाते देखना एक यादगार अनुभव था!
आप भी देखिये इन खूबसूरत तस्वीरों को...घर के सामने सड़क पर नाली में खुशियाँ
मनाते बच्चे॥

हमसे जीना सीखो....

खुशियाँ कैसे चारों और बिखरी पड़ी हैं!हाथ बढाओ और समेट लो

यहाँ के हम सिकंदर

खुशियाँ हमसे बचके जायेंगी कहाँ