Sunday, December 13, 2015

हर पहर प्रेम

(श्रवण )
आज सवेरे जब तुम्हे देख रही थी अपलक ,
परिंदों को दाना डालते हुए ,
छत पर दो गौरैया , तीन कबूतर और चार गिलहरियों से घिरे ,
उन्हें प्यार से टेर लगाकर बुलाते हुए तुम,

अचानक एक गहरी और शांत आवाज़ में तब्दील हो गए थे 
और मैं लगभग ध्यान मग्न

संसार के सारे स्वर मौन हुए और
तुम गूंजने लगे मेरे देह और मन के ब्रम्हांड में एक नाद की तरह 
काटते रहे चक्कर मेरी नाभि के इर्द गिर्द

मैं उस पल में एक योगिनी थी और तुम 
ओम... ओम...ओम

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( स्वाद)
आज दोपहर मौसम की पहली बारिश और बस ...
तुमने देखा मुझे ऐसी तलब भरी निगाहों से 
मानो मैं चाय की एक प्याली हूँ

ओह ...उत्तेजना से थरथरायी प्याली और 
टूट कर बिखर गयी एक गर्म आगोश में

और ठीक उस वक्त जब तुम ले रहे थे बागान की सबसे कोमल पत्तियों की चुस्कियां
मैं तलबगार हुई एक अनचीन्हे नशे की और
तुम उस क्षण बने मेरे लिए अंगूर का महकता बाग़

ढेर से रसीले अंगूर मैंने कुचले , चखे और
डूबकर बनायी दुनिया की सबसे बेहतरीन शराब

अब आँखें बंद कर घूँट घूँट चखती हूँ तुम्हे 
नशा -ए -मुहब्बत बढ़ता जाता हर बूँद के साथ

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(स्पर्श)
पूरी ढल चुकी शाम के बाद बुझ चुके सूरज की राख 
जब उदासी बनकर जमा हो रही थी चेहरे और निगाहों पर

तुम बन गए थे एक रेशमी रूमाल
मेरी छलछलाई आँख को समेटते , उदासी की राख पोंछते

तुम उस पल एक मुलायम छुअन थे , 
हंस का एक उजला मुलायम पंख थे , किसी नवजात की नर्म हथेली थे

तुम स्वाति की पहली बूँद थे, बेचैन पपीहे पर बरस रहे थे ....
..........................................................
(दृश्य)

आधी रात नींद खुली और देखा 
तुम टेबल पर झुके कोई कविता बुन रहे थे 
लैम्प की उस पीली रौशनी में तुम बन गए
प्रकृति की एक विराट पेंटिंग

सोचते हुए ललाट पर चार गहरी सिलवटें
जैसे सूरज से निकलती पहली किरणें
जिसकी गुनगुनी गर्माहट में 
गेंहूं की बाली की तरह पकती थी कविता ,

प्रेमिल आँखों में देर से टिकी एक बूँद 
जो बाद में कविता की किसी पंक्ति में ही गुम हो गयी थी 
मद्धम लयबद्ध साँसों में महकती थी वो सुनहरी गेंहू की बाली

मैं देखती रही अडोल उस अलौकिक चित्र को 
फिर मैं उस चित्र पर झुकी और अपना नाम लिख दिया 
एक पीले चुम्बन से ....

..............................................................
मैं मेरी चार इन्द्रियों से चार पहर तुम्हे महसूसती हूँ
और पांचवी ?
(गंध)
जब जब सांस लेती हूँ 
तुम बन जाते हो तुम्हारी ही तुर्श महक 
जो फूटती है तुम्हारी देह से और 
समाती है मेरी रूह में......

Wednesday, November 18, 2015

और कमला मर गयी


कमला के आदमी ने कमला के गाल सुजाये
खींचा पटका और घर से निकाल दिया 
इसने देखा , उसने देखा , सबने देखा
मैंने भी देखा 

सबके कानों में एक साथ गांधीजी चिल्लाये 
" बुरा मत देखो "
हम सब अपनी आँखों पर हाथ रखकर घर लौट गए 

कमला रोती रही रातभर गली के कुत्तों के साथ
मोटी मोटी गालियां बकती रही अपने घर की देहरी के बाहर 
इसने , उसने , सबने सुनीं 
मैंने भी सुनीं 

गांधी जी फिर हमारे कानों में फुसफुसाए
" बुरा मत सुनो "
हम सब ने खिड़कियाँ बंद कीं और सो गए 

कमला फिर कभी नहीं दिखी 
दो दिन बाद एक अनजान औरत की मौत पुलिस फ़ाइल में दर्ज़ थी 
शिनाख्त पर कोई कमला निकली 

पुलिस मोहल्ले भर में पूछती फिरी 
" क्या हुआ था ? कमला के पति का चलन कैसा है ?"
मूर्ख हवलदार .. क्या जाने गांधी की शिक्षा 

हम किसी के लिए बुरा नहीं बोलते ... गांधी बुरा मान जाते हैं 
हमने अपने मुंह पर हाथ रख लिया 

जांच में कमला की मौत नामालूम वजहों से आत्महत्या निकली 

हमने अगले दिन गांधी प्रतिमा पर फूल चढ़ाये 
ऐनक और चरखे को कवर फ़ोटू बनाया 
तीन बंदरों को शुक्रिया कहा 
इस तरह हमने दो अक्टूबर मनाया

Thursday, September 17, 2015

विदा - 2

सबसे उदास और बदरंग मौसमों में मैंने चुने 

सबसे चटक रंग अपनी कुर्ती के लिए 
दुपट्टे में लगवाई गोटा किनारी और
आँखों में भर लिए नीलकंठ और नौरंगे के चमकीले रंग

एक ज़र्द और धूसर साँझ जब सीने से लिपट लिपट जाती तो
मैं भागकर सामने जनरल स्टोर जाती,
झटपट ले आती रंगबिरंगी जेम्स की गोलियां और
मेरी वाली ऑरेन्ज को उस सलेटी शाम के माथे पर सजा देती 
फिर पहनती अपनी ऑलिव ग्रीन फूलों वाली घेरदार स्कर्ट 
और मोज़िटो हाथ में लिये देर रात तक सुनती रहती
रेस्त्रां में गिटार थामे गाते उस नवयुवक को

जब रातें नाग बन आँखों पर कुंडली मारकर बैठ जातीं 
मैं मुल्तवी कर देती सोना और रात गुज़ार देती
चर्च में मिस्टर बीन के बराबर वाली कुर्सी पर बैठे हुए
नागों के पास नहीं है अच्छा हास्य बोध
आखिर थक कर वे वापस लौट ही जाया करते

पीली पड़ चुकी डायरी में कितनी बार रखे मैंने ताज़े फूल 
सूखी शाखों को हरियाया ओ ' हेनरी तरीके से 
लगभग ठहर चुके वक्त में मैं चली पागलों की तरह
ठहरने को खारिज करते हुए,
बंद पड़ी घड़ियों पर दिन में सिर्फ दो बार नज़र डाली
वक्त सही न था पर मैंने जब देखा सही देखा

मेरे भीतर का शहर जब जब उजड़ा 
मैं उन सुनसान सड़कों पर भागी पायलें पहनकर
घुंघरुओं के शोर से कुचला अकेलेपन की कातर चीखों को

जब माथे पर गहरी नींद सोया एक भूला बिसरा चुम्बन अंगड़ाई लेता
जब उन गुज़रे सालों की कोई बेरहम स्मृति किवाड़ खटखटाती
जब स्वप्न शत्रु की तरह पेश आने लगते 
तब मैं उन प्रेमिकाओं के बारे में सोचती जिन्हें जन्मों जन्मों तक श्राप मिला है विरह में होने का 
प्रेम में जीती मरतीं उन औरतों की गाढ़ी पीड़ा को 
मरहम बनाकर लेप दिया अपने एक नन्हे से दुःख पर

इस तरह मैंने सबसे बुरे दिनों में भी जुटाया
अपने हिस्से की ख़ुशी का एक एक मॉलिक्यूल

सिर्फ तुम जानते हो कि ये सारी मशक्कत थी
महज एक वादे को निभाने के लिए वरना 
उदास औंधे मुंह लेटकर रोते रहना कितना आसान था

और देखो .. मैं तुम्हे तब तक क्रूर मानती रही 
जब तक जान नहीं गयी कि 
दरअसल तुम मुझे क्या सिखाना चाहते थे

अब मैं सुख का बंदोबस्त नहीं करती 
सुख को चुनती हूँ ...

बात बस कुल इतनी सी कि 
विदा मुलाकातों की डोर का टूटना और 
दो आत्माओं के बीच स्मृतियों की कभी न खुलने वाली एक पक्की गाँठ का लगना है....

और अब कौन जानता है यह मुझसे बेहतर कि 
हर विदा ब्रेकअप नहीं होती....

Thursday, August 20, 2015

ये होती है बारिश

.
बारिश का होना केवल काले बादलों से बूंदों का गिरना थोड़े ही है 
बूँदें बारिश नहीं होतीं
वे तो बारिश लाती हैं

बताऊँ ? क्या होते हैं बारिश के मायने ...
धड़कनों का मोर बन जाना है बारिश
बदन का मुस्कराहट बन जाना है बारिश
आँखों का जुगनू बन जाना है बारिश 
बाहों का झप्पी बन जाना है बारिश

सड़कों का संतूर बन जाना है बारिश 
पहाड़ों को कहवे की तलब उठना है बारिश 
नदियों की गुल्लक भर जाना है बारिश 
जंगलों का किलकारी बन जाना है बारिश

रांझों का जोगी हो जाना है बारिश
हीरों का नटनी हो जाना है बारिश 
खुदा के पेहरन का कच्चा हरा रंग छूट जाना है बारिश
रातों का झींगुर हो जाना है बारिश

धरती का खुशबू हो जाना है बारिश 
सूरज का एक झपकी मार लेना है बारिश 
रेनकोट के भीतर तरबतर हो जाना है बारिश 
यादों की इक सूखी पत्ती का हरिया जाना है बारिश

आसमान का टिपटिप हो जाना है बारिश 
शहरों का छप छप हो जाना है बारिश 
मौसम का रिमझिम हो जाना है बारिश 
रागों का घन घन हो जाना है बारिश

नज्मों के चेहरों पर बूंदों का झिलमिलाना है बारिश 
सीले ख़्वाबों का सुलग उठना है बारिश
मन का सबसे कच्चा कोना रिसने लगना है बारिश 
बूढ़ी पृथ्वी के जोड़ों में इक कसक है बारिश

पुराने एल्बम पलटना है बारिश 
ड्राफ्ट्स में सहेजा एक ख़त दसियों बार पढना है बारिश 
गुलज़ार , पंचम और ब्लैक कॉफ़ी है बारिश 
छतरी ठेले से टिका भुट्टे खाना है बारिश और

तुम्हारा हौले से मेरा माथा चूम लेना है बारिश .....

Thursday, July 2, 2015

विदा -1

कब किसी ने सलीका बताया कि कैसे ली जाती है विदा
प्रेम करने के सौ तरीकों वाली किताब भी नहीं बताती
कि विदा प्रेम का ज़रूरी हिस्सा है
साथी को खुश रखने के नुस्खे तो सहेलियों ने भी कान में फूंके थे
माँ भी यदा कदा सिखा ही देती समझौते करने के गुर

लेकिन विदा और मृत्यु के बावत कोई बात नहीं करता
जबकि दोनों प्रेम और जीवन का अंतिम अध्याय लिखती हैं

इस तरह विदा लेना और देना मुझे आया ही नहीं
गले लगकर रोना बड़ा आसान और प्रचलित तरीका है
पर मुकम्मल तो वो भी न लगा 
गाली बक कर दो तमाचों के साथ भी विदा ली जा सकती है
मगर वह इंसानी तरीका नहीं

क्या होता वो सलीका कि विदाई की गरिमा बनी रहती
तमाम शिकवों के बावज़ूद ?

जैसे पेड़ करते हैं अपने पत्तों को विदा 
जैसे रास्ता मुसाफिर को और 
जैसे चिड़िया अपने बच्चों को

मुझे न पेड़ होना आया , न रास्ता होना 
और न चिड़िया होना

खामोशी से किसी को सुलाकर उससे हाथ छुड़ा लेना एक और तरीका है
पर यह तो ज़ुल्म ठहरा 
यशोधरा की खाली छूटी हथेली आंसुओं से भरी देखी थी मैंने
और खामोश होंठों पर एक उदास शिकवा " सखी वे मुझसे कहकर जाते "

वादा करके न लौटना एक और तरीका हो सकता है
मगर यह क्रूरता की पराकाष्ठा है और 
जन्म देता है एक कभी न मिटने वाले अविश्वास को

हांलाकि दोनों तरीकों के मूल में विदा के दुःख को कम करना होता होगा शायद
मैं इस विदा को टालती रही एक मुकम्मल तरीके के इंतज़ार में 
और इस बीच एक सुबह देहरी पर रखा पाया 
एक गुड बाय का ग्रीटिंग कार्ड

विदाई का एक बदमज़ा तरीका आर्चीज वाले भी बेच रहे थे
सच तो ये कि विदा करना कोई किताब नहीं सिखा सकती
कोई समझाइश विदा को आसान और सहज नहीं बनाती

हर विदाई छाती पर एक पत्थर धर जाती
हर विदा के साथ नसें ऐंठ जातीं , आँखें एक बेचैन काला बादल हो जातीं
हर विदाई के साथ कुछ दरकता जाता
हर विदा के साथ कुछ मरता जाता

कितना टालूं इस विदा को कि
अब वक्त बार बार चेतावनी अलार्म दे रहा
"टाइम ओवर लड़की .. तुमसे न हो पायेगा"

हाँ ... मुझसे सचमुच न हो पायेगा
कि मरना ही होगा एक बार फिर
ओ गुलज़ार .. जानते हो
सांस लेने की तरह मरना भी एक आदत है

पर अब भी मैं जीवन की आखिरी विदा से पहले
पेड़ ,रास्ता या चिड़िया होने के इंतज़ार में हूँ...

Saturday, June 20, 2015

जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम..

' जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम '
फरीदा आपा , कहाँ से लाई हो तुम आवाज़ में ऐसी तड़प कि जाने वाले के कदम वहीं के वहीं थम के रह जाएँ !उफ़ सी होती है दिल में , धड़कनें मुंह को आती हैं ! रोकने वाले की जान जाने वाले के क़दमों में घिसटती हुई पीछे पीछे जाती है !
मैंने तो जब जब कहा ' तुमको अपनी कसम जानेजां ,बात इतनी मेरी मान लो ' जाने वाला मुस्कुराया,गाल पर एक मीठी चपत लगाई और फिर कभी नहीं लौटा ! कसम सिसकती हुई खुली खिड़की पर औंधे मुंह पड़ी रही ! जान निकलती रही ,जान जाती रही पर कोई रुका नहीं !
जाने कितनी कही अनकही इश्क की दास्तानों में ये एक गुज़ारिश रो रोकर दम तोड़ती रही ! पहलू से उठकर जाते देखना रुलाता रहा ,हाय मरते रहे, लुटते रहे मगर आखिर में पनाह देती बस एक आवाज़ बची रह जाती !
' आज जाने की ज़िद न करो '
फरीदा आपा .. तुम गाती जातीं , रील घिसती जाती , ज़िन्दगी गुज़रती जाती !
आखिरी बार तुम्हे अपनी रूह में घोलकर मैंने शिद्दत से बार बार पुकारा था....
' तुम ही सोचो भला क्यूँ न रोकें तुम्हे ,जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम
तुमको अपनी कसम जानेजां ,बात इतनी मेरी मान लो
आज जाने की ज़िद न करो '
पर पापा नहीं रुके ! तुमको इतना इतना सुनने वाले पापा नहीं रुके ! ऐसे गए कि बस ...
सच सच कहना आपा ,क्या तुम भी कभी रोक पायीं जाने वालों को ? नहीं रोक पायी होगी ना .. जाने वाला कब रुका है भला ?
आज किसी को नहीं रोकना मुझे ! किसी से कोई ज़िद नहीं करनी ! मगर तुमसे एक रिश्ता है आपा ! जब भी जाने वाले को रोकूँगी ,तुम्हे ही गुनगुनाउंगी । क्या जाने कोई सचमुच ही सारा जहां छोड़कर पहलू में ही बैठा रह जाए ! कोई एक कसम पर ख़ुशी ख़ुशी बंध जाए !
आपा ... तुम पनाह देती हो हमेशा हमेशा ! अभी भी तुम्हारी आवाज़ के दरिया में गहरे डूबी हुई हूँ ! तुम्हारे इतने कहे पर ही जान निकलती है मेरी !
' वक्त की कैद में ज़िन्दगी है मगर ,चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद है
इनको खोकर मेरी जानेजां ,उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की ज़िद न करो .... '

Saturday, May 16, 2015

अथ श्री कॉकरोच, कॉकरोचनी कथा

एक दिन एक सरकारी ऑफिस में अलमारी के पीछे निवास करने वाले कॉकरोच और कॉकरोचनी चिंता में डूब गए ! उन्होंने स्वीपरों को आपस में बात करते सुना कि सरकार ने सफाई अभियान चलाया है , सभी सरकारी कार्यालयों के अन्दर और बाहर से सारी गंदगी हटा दी जायेगी ! कीड़े मकोड़े भी बेमौत मार दिए जायेंगे !
दोनो प्राणी चिंता में डूब गए ! दोनों को पूरे दिन नींद न आये ! रात भर हाय हाय करें ! अब क्या होगा ?
दोनों ने आंसू भरी आँखों और भारी ह्रदय से अपने पुश्तैनी घर को छोड़कर पलायन करने की सोची और बगल के ऑफिस के स्टोर रूम में बक्से के पीछे एक कुटिया बना ली ! पूरा स्टोर घूमकर देखा , कोई और कॉकरोच न दिखा ! वे दुबारा चिंता में डूब गए ! " यहाँ तो ज्यादा मारकाट हुई है , लगता है "
कौकरोचनी को सुबह होते ही अपने पुराने घर की याद सताने लगी ! वो शोक के मारे मुच्छी लहराकर बोली " चलो प्रिय ..एक चक्कर लगा आयें ! दिन होते ही वापस आ जायेंगे "
दोनों जने आतंकवादी झाडुओं , स्प्रेओं और चप्पलों से छुपते छुपाते पुराने ठिकाने पर पहुंचे ! वहाँ देखा तो एक दूसरा कॉकरोच कपल अपना आशियाना बना चुका था ! कौकरोचनी के गुस्से का ठिकाना न रहा ! जिस घर में वो ब्याह कर आई , यहीं सास ससुर की अर्थी सजी , यही वह पहली बार माँ बनी , आज उसके सपनों के घर में कोई और घुस आया है !
दोनों मियाँ बीवी मूंछ कसकर नए घुसपैठियों को ललकारने लगे ! नयी कौकरोचनी ने डरते हुए बताया कि वे तो सरकार की घोषणा से घबड़ाकर बगल के ऑफिस के स्टोर रूम से भागकर यहाँ शरण लेने आ गए हैं !
दो मिनिट को सन्नाटा छा गया ! तभी एक झींगुर और झींगुरनी ने नेपथ्य से एक दोगाना सुनाया जिसका भावार्थ यह था कि " हे मूर्खो .. जिसको स्वच्छता रखनी होती है वह सरकार के आदेश का इंतज़ार नहीं करता ,जिसके यहाँ कॉकरोच पुश्तों से रहते आये हैं उसकी सात पीढ़ियों का भविष्य वैसे ही उज्जवल है और वैसे भी वे सरकारी कॉकरोच हैं इसलिए चिंता का त्यागकर आनंद मनाएं "
दोनों जोड़ों को यह सुनकर राहत मिली ! चारों ने एक साथ बड़े बाबू की मेज पर झिंगा ला ला बोल बोलकर समूह नृत्य किया और पार्टी मनाकर अपने अपने आशियाने को कूच किया !
अगले दिन सुबह दोनों ने बड़े बाबू को जब बगल की दीवार पर गुटखा थूकते और छोटे बाबू को समोसा खाकर परदे से हाथ पोंछते देखा तब उनकी जान में जान आई !
अगले दिन उन दोनों ने समाज सेवा करते हुए ऑफिस के चूहों , मच्छरों और छिपकलियों को भी झींगुर झींगुरनी का दोगाना मुफ्त में सुनवाया ! सभी प्राणियों में हर्ष छा गया !और वे सभी निश्चिन्त होकर सुखपूर्वक निवास करने लगे !

Friday, May 8, 2015

कभी ऐसे भी करना प्रेम


जब भी देखो किसी चिड़िया को चहकते , फुदकते 
बस उसी को देखना एकटक 
यूं नहीं कि पढ़ते , लिखते, मोबाईल पे बात करते एक उड़ती निगाह डाली 
और मुस्कुरा दिए

सारा काम परे रख ...देखना बस उस चिड़िया को 
आँख में भर लेना उसे उसके पूरे चिड़ियापन के साथ 
जीना उस पल को सिर्फ उस चिड़िया के साथ

और ऐसे ही करना प्रेम 
जब भी करना

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सारे ब्रांड उतार कर देहरी पर छोड़ देना
क्लच को एक झटका देना और सुबह दस बजे से कसे जूड़े को खोल देना 
निकाल देना साड़ी के पल्ले की सारी पिनें

आना नीली बद्दी वाली हवाई चप्पल सी बेफिक्री लिए 
हमेशा अपने प्रेमी के पास 
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आज उसे चाँद की बिंदी न लगाना 
आँचल में सितारे भी न टांकना 
उसकी देह के लिए नयी उपमाएं तो बिलकुल न खोजना

मार्च एंड के बोझ की मारी वो 
जब लौटे ऑफिस से 
प्यार से लिटा लेना अपनी गोद में
मलना बालों में जैतून के तेल को अपनी पोरों से 
और बच्चों सी गहरी नींद सुला देना 
बस्स ...
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जब लड़ना तो आसमान सर पे उठा लेना 
कहना उसे 
" जल्दी टिकट कटा ले बे ऊपर का "

और जब उसके इंतज़ार का काँटा 
दस मिनिट भी ऊपर होने लगे तो 
वो दस मिनिट दस युगों की तरह गुजारना 
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उसे यूं ही बाहों में मत भर लेना 
सुनो ..आज एक काम करना

खाने की मेज़ पर प्लेटें सजा देना 
काट कर रखना खीरा और टमाटर 
झटपट बना देना सब्ज़ पुलाव और पुदीने कैरी की चटनी

और जब वो नहाकर ऊपर बाल बांधती हुई 
जाने लगे रसोईघर में

उसे बाहों में भरकर 
बेतहाशा चूम लेना 
और उसकी आँखों से सुख बरसा देना

Wednesday, April 15, 2015

एक मुकम्मल सी मुलाक़ात हुई थी उनसे

उसे जैसे इस लम्हे में होना ही था मेरे साथ ! अगर हम दोनों दुनिया के अलग अलग छोरों पर भी होते तब भी इस लम्हे में आकर हमें मिलना ही था ! और उस वक्त में मैं ,मैं नहीं कोई और थी !यूं जैसे कोई जादूगर एक छड़ी घुमा रहा था और मैं उसके मन्तरों में बंधती जा रही थी !यूं जैसे दुनिया की बेहतरीन शराबें मेरे हलक से उतरती जा रही थीं !यूं जैसे कि उस पल में मैं एक चुम्बक बन गयी थी और उसके रक्त का सारा लोहा मुझे खींचे जा रहा था! उसके करीब होना किसी और जनम से ही तय था !एक बादल मुझ पर बरसने आया था ! देह सिमटने की बजाय खुलने लगी थी ,खिलने लगी थी ! हाथ थामते ही धड़कनें एक दूसरे को पहचान गयीं थीं ! वक्त का गुज़रना सज़ा ऐ मौत के फरमान से ज्यादा क्रूर हो चला था ! उस पल में मैं पूरी तरह बस उसी पल में थी ! न एक पल आगे ,न एक पल पीछे !

वो अजनबी चन्द घंटों के लिए यूं मेरे पास आया और चला गया जैसे एक खुशबू भरा रेशमी स्कार्फ हाथों में धीरे धीरे फिसलते हुए उड़ जाए और हथेलियों को महका जाए हमेशा के लिए! नाम ,पता,जात, शहर सब बेमानी सवाल थे ! कसमें ,वादे ,शिकवे कुछ भी तो न था उन पलों में ! न दोबारा मिलने की ख्वाहिश और न बिछड़ने का ग़म ! बस देह से आत्मा तक ख़ुशी ही तो थी थिरकती हुई ! हर सवाल का बस एक ही जवाब था कि वो अजनबी नहीं , बेहद अपना है ! उससे पहचान इतनी पुरानी है कि उसके आगे सबसे पुराने रिश्ते भी नए थे ! अगर वो उस क्षण मेरा हाथ थाम कहता कि "चलो " तो मैं बिन कुछ पूछे उसके साथ चल पड़ती ! अगर अवचेतन को मैं ज़रा सा भी अपने बस में कर पायी होती तो मुझे पता होता कि इसके पहले किस सदी में हम यूं हाथों में हाथ डाले ऐसे ही बैठे थे !

उसके स्पर्शों के फूल मेरे काँधे ,गर्दन , माथे और होंठों पर अब भी खिले हुए हैं ! और उसकी हथेली की गर्माहट रूह को अब तक महसूस हो रही है ! उसकी आँखें मेरे साथ चली आई हैं ! सामने बैठी मुझे एकटक देखे जा रही हैं ! उसकी मुस्कराहट याद कर मेरे गाल लाल हो उठते हैं !वो जो घट रहा था उन पलों में ,वो सबसे सुन्दर था ,सबसे सच्चा था !

मुझे यकीन है वो मुझे फिर मिलेगा ! ठीक वैसे ही जैसे आज अचानक मेरे सामने आकर बैठ गया था ... बेइरादा ,बेमक़सद ! सिर्फ ये बताने के लिए कि "मैं हूँ , कहीं नहीं गया" ! शायद फिर किसी लम्हे में हम दोनों दुनिया के अलग अलग कोनो से भागते हुए आएंगे और गले लग जाएंगे ! फिर एक रात खामोशियों में अपना सफ़र तय करेगी ! फिर किसी के सीने पर मेरा सर ऐसे ही टिका होगा और दो मजबूत बाहें मेरे इर्दगिर्द लिपटी होंगी !

रूमानी शब्द इस एहसास के लिए बहुत छोटा है ! ये एक रूहानी एहसास था ! सदा के लिए ... सदा सदा के लिए!

Monday, April 6, 2015

हर बिछड़ना ,बिछड़ना नहीं ...

वो अब शायद दोबारा कभी नहीं मिलेगी !

डॉक्टर के क्लीनिक पर मेरे साथ उसकी माँ भी अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थी ! वो लाल रंग की एक सुन्दर फ्रिल वाली फ्रॉक के साथ लाल ऊन के फ़ीतेदार जूते पहने एक छह माह की बहुत प्यारी बच्ची थी ! पांच दस मिनिट उसे पुचकारने से वो मुस्कुराने लग गयी थी ! फिर जब उसे गोद में लेने को हाथ बढ़ाया तो वह दोनों हाथ फैलाकर मेरी गोद में लपक आई ! अगले बीस मिनिट तक हम खूब हंसे ,खिलखिलाए ! उसकी माँ उसे मेरे पास ही छोड़कर डॉक्टर को दिखाने चली गयी ! वो अपनी उजली चमकदार आँखों से मुझे देखती और मैं गुदगुदी करने के लिए उंगलियां उसकी ओर बढ़ाती और वो ज़ोर से खिलखिला उठती ! हम दोनों एक दूसरे के साथ खुश थे ! उसकी माँ ने बाहर आकर उसे गोद में लिया और जाने लगी ! मैंने उसे टाटा किया और वो अपने दोनों हाथ फैलाकर मेरी गोद में आने के लिए लगभग पूरी लटक गयी ! वो मचलती रही और कार तक जाते जाते वो दोनों हाथ फैलाए मेरी गोद में आना चाह रही थी ! एक पल को ऐसा लगा जैसे वो मुझे बहुत अच्छे से जानती है !

खैर उसे जाना था ..वो चली गयी !

उसके जाने के बाद न जाने कितने चेहरे आँखों के सामने से घूम गये जो जीवन के किसी न किसी मोड़ पर मिले थे फिर कभी न मिलने के लिए ! उन्हें रुकने की ज़रुरत भी न थी ..चंद मिनिटों,घंटों या दिनों में वो अपना काम बखूबी कर गए थे ! इनमे से कई हमें बहुत कुछ दे जाते हैं अपनी कहानियों , अनुभवों की शक्ल में और कई हमसे कुछ ले जाते हैं ! ऐसे लोगों का मिलना शायद हमें अन्दर से समृद्ध करने के लिए होता है ! तभी तो वो चेहरे कभी न भूल सके !

शाजापुर की छोटी सी ओना ,मोना ! तीन साल और एक साल की घर भर में फुदकती दो बहने !जिनकी सुबह से शाम तक हमारे घर पर कटा करती थीं ! अब बहुत बड़ी हो गयी होंगी ! ढूँढने से मिल भी जाएंगी आज शायद तेईस बरस की होगी ,पर ये वो मोना न होंगी ! पापा के पेट पर बैठकर चावल खाने वाली छुटकी सी मोना अब कभी नहीं मिलेगी ! शायद जिन्हें कभी नहीं मिलना होता वो जाने से पहले हमारे दिल में सदा के लिए बस जाया करते हैं ! ऐसे प्यारे लोगों का जीवन में दोबारा न तो इंतज़ार होता है , न फिर से मिलने की ख्वाहिश और न उनके जाने का दुःख ! ये बस आते हैं क्योंकि इन्हें मिलना होता है और चले जाते हैं !

ग्वालियर की आई ,मुरैना की सरला आंटी , मॉर्निंग वाक पर मिला एक बच्चा जिसने उसकी साइकल की चेन चढाने के बदले मुझे आपनी साइकल पर बैठाकर मंजिल तक छोड़ने की पेशकश की थी , ट्रेन के सफ़र में मिली एक लड़की जिसने मुझे अपना राज़दार बनाया था , एक सेमीनार में मिला वो हसीन नौजवान जिससे मिलकर एहसास हुआ कि इंफेचुएशन पर केवल टीनएज का हक़ नहीं है !एक और ट्रेन यात्रा में मिले वो एल आई सी वाले अंकल जिन्होंने अपने पिता के लिए लिखी एक कविता सुनाई थी और फिर टॉयलेट में जाकर मैं फूट फूट कर रो पड़ी थी ! मैं इटारसी उतर गयी थी और वो नागपुर चले गए थे ! उनकी कविता की आखिरी लाइन थी ..
" पिता का गुस्सा दरअसल आधी चिंता और आधा प्रेम होता है
पिता तो सिर्फ माफ़ करना जानते हैं "

क्या एक पीपल का पेड़ भी उस चिड़िया को याद करता होगा जो दूर सायबेरिया से चलकर आते वक्त दो घडी उसकी शाख पर बैठी थी और जाने कितनी कहानियाँ उस की शाखों पर बाँध कर चली गयी थी ! वृक्षों के पास अनगिनत कहानियां होती हैं , ये चिड़ियाएँ ही हैं जो उन्हें समृद्ध बनाती हैं !

क्या उन तीन बच्चों को झांसी रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में बैठी वो दीदी याद होगी जिसने अपने कैमरे की स्क्रीन पर उन्हें ढेर सारे पक्षियों की फोटो दिखाईं थीं , जिनमे से कई उन्होंने पहली बार देखे थे और हॉर्नबिल देखकर तो बेहद आश्चर्य में पड़ गए थे !

ऐसे लोग कभी बिछड़ते नहीं ...वे केवल मिलते हैं !

माँ होने के वो दस मिनिट

अक्सर एक छुट्टू सी हंसी नाभि से बाहर को फुदकती आती है और हम दोनों के होंठों पर 
नाचने लगती है !कभी कभी इक कोमल अंगूठा मेरी दीवारें खटखटाता है और मैं मुस्कुराकर बुदबुदाती हूँ " थोडा रुको अभी ..और थोड़े बड़े हो जाओ "

जब रातों को मेरा सारा बदन सोता है तो मेरी रूह जागकर एक नन्हे बदन की रखवाली करती है !मेरे सीने के बाईं ओर की टिकटिक मुझे अब सुनाई नहीं पड़ती ... मेरी सम्पूर्ण देह ही एक ह्रदय में तब्दील हो चुकी है !

मैं मेरी माँ को याद कराती हूँ " माँ याद करो ना , क्या तुम्हे भी ऐसा होता था ?" माँ ज़ोरों से हंसती है , माँ की स्मृति से एक पल को भी मेरा आना विस्मृत नहीं हुआ है , माँ को उस एहसास को जीने के लिए बस मुझे बाहों में भर लेना होता है ! माँ आँखें बंद कर पूरी पहर उस पच्चीस साल पुरानी जादुई घटना के बारे में बात कर सकती है ! 

ओह ... पूरा ब्रम्हांड मेरे अन्दर गोल गोल चक्कर काटता है ! जिस दिन मेरी आत्मा ने सबसे मीठा चुम्बन पाया था उस दिन मैं जान गयी थी कि दो सुर्ख पंखुरियां नाज़ुक होंठों में बदल गयी हैं !

इन दिनों "बड़ा नटखट है ये कृष्ण कन्हैया " की धुन सितार पर सुनते हुए चेहरा आनंद के आंसुओं से भीग उठता है और छातियाँ एक नन्हे मुंह के स्पर्श को व्याकुल हो उठती हैं ! 

मेरे स्वप्न तुतलाने लगे हैं ,मैं दुनिया का सारा ज्ञान परे रख नन्ही ठोकरों की भाषा सीखने लगी हूँ ! मेरी उंगलियाँ सितार के तारों पर फिसलना भूल खरगोश की डिजाइन वाले नन्हे जुराब बुनना सीख गयी हैं !

मेरी देह के ताल में एक गुलाबी कमल खिल रहा है ! 

......................................( एक होने वाली माँ को सोचते , महसूस करते और जीते हुए )

Thursday, February 5, 2015

पिता सोते नहीं

एक दिन
पहाड़ की गोद से मचलकर एक नदी फिसल कर भागी 
पर्वत मुस्कुराकर आवाज़ देता रहा 
नदी एक हिरनी की तरह कुलांच भरती रही


पहाड़ जागता हुआ सचेत खड़ा है एक पिता की तरह 

नदी मैदानों में सितोलिया खेल रही है 
घाटियों से गुज़रते हुए कोई अलबेली धुन गुनगुना रही है 
कभी बेसुध हो नाच रही है तो कभी शहरो से गप्पें हांक रही है 
कभी पलटकर पहाड़ को जीभ चिढ़ा रही है


पहाड़ बस मुस्कुराये जाता है

एक नन्ही बिटिया को पिता की ऊँगली थामे मेले में घूमते देखा था आसमान ने 
और चाँद ने बलाएँ लेकर दुआएं बिखेरी थीं अंतरिक्ष में
नदी की दायीं बांह में बंधा है पहाड़ी मिटटी का तावीज़
और बालों में टँकी है एक मेले से खरीदी हेयरपिन


नदिया दौड़े जाती है आँखें मीचे 
अपने किनारों के कांधों पर चढ़कर 
और रात को 
थक कर सो जाती है सीने पर दोनों हाथ समेटे


पहाड़ सदियों से सोया नहीं है 
उसके बाएं हाथ की ऊँगली में अटका है 
नदी की फ्रिल वाली फ्रॉक का रेशमी बेल्ट


पहाड़ मोह में नहीं , पुत्री के प्रेम में है
आज़ादी उसका नदी को दिया सबसे बड़ा उपहार है


पिता की गोद से फिसलकर भी 
कौन बिटिया ओझल होती है भला 
अगर सिर्फ आँखें बंद कर लेना सोना नहीं तो 
पिता कभी सोते नहीं


बिटिया को देते हैं दो सफ़ेद पंख 
और बस करते हैं परवाह आखिरी सांस तक

..................................(जागते पहाड़ , बहती नदिया )