Wednesday, December 29, 2010

दादी मेरी जान...कितना सरप्राइज़ करती हो तुम


" दिन भर ऊधम पट्टी...कोई काम धाम नहीं! कभी तो खुद से पढने बैठ जाया करो...." पापा की डांट रोज़ शाम सात बजे शुरू हो जाती! हम दोनों भाई बहन कूद कर अपने कमरे में जाकर किताबें खोल लेते! पर पापा और डांटने के मूड में रहते और इस डांट का अंत होता दादी की शरारती आवाज़ से " अरे मुझसे पूछो....तुम लोग तो फिर भी पढने बैठ जाते हो...तुम्हारे पापा को तो कितना भी डांट लो कोई फर्क ही नहीं पड़ता था...है न किशन ?"
अम्मा तुम भी...बच्चों के सामने कुछ भी बोलती रहती हो" पापा चले जाते और दादी हमें देखकर आँख मारने की स्टाइल में एक आँख दबाने की कोशिश करतीं...पर हमेशा दोनों आँखें ही झपकती! दादी..क्यूट दादी.. मेरी बहत्तर साल की दादी! छोटी सी, सांवली सी, सफ़ेद बालो की एक पतली सी चोटी बांधे, बात बेबात हँसती हुई पूरे घर की रौनक बनकर घूमा करती! हमारे साथ हमारे सभी दोस्तों की भी फेवरिट! प्रिया को उनके हाथ की लहसुन की चटनी पसंद थी...लता को गुड और मक्के की रोटी और रजनीश को मलाई वाला फेंटकर दिया हुआ दूध! रात को दादी के साथ एक रजाई में चिपक कर सोने के लिए हम दोनों लड़ते! दादी दोनों के बालो में हाथ फिराती और जाने किस ज़माने की किसी भुलक्कड़ रानी की कहानी सुनाती! दादी की फटी एडियाँ पैर खुजाने के काम आती थी! दादी जोर जोर से हंसती तो उनका गुलगुला पेट खूब हिलता!
जिस दिन दादी का मुंह फूला रहता उस दिन अकेली सुबह से उठकर घर के काम में लग जाती...किसी को हाथ न लगाने देती! ये उनका तरीका था गुस्सा दिखाने का! साथ में बड़बडाती भी जाती...उस समय उन्हें छेड़ने की हिम्मत न होती किसी की! गुस्से में उन्हें किसी का बोलना पसंद नहीं आता..यहाँ तक की रेडियो पे गाने बजते उनमे भी नुक्स निकालना शुरू कर देती! एक बार मैंने सुना किशोर कुमार को कह रही थीं " जब गाना नहीं आता तो काहे गाते हो जी " शाम होते होते दादी का गुस्सा छूमंतर हो जाता और झुर्री भरे गालों पर मुस्कान की रेखा खिंच जाती!

उस दिन स्कूल से घर आकर मैंने दादी को प्रेमचंद की " बूढी काकी " कहानी सुनाई! कहानी ख़तम होने पर दादी चुपचाप उठी और अपने कमरे में चली गयी! और फिर कई घंटों तक खामोश रही! पहली बार उनकी आँखों में एक गहरी उदासी मैंने देखी! दो तीन दिन बाद किसी बात पर धीरे से दादी बुदबुदाई थी " अच्छा है...मुझे हर महीने पेंशन मिलती है " शायद दादी ने कहानी सुनने के बाद अपनी किस्मत की तुलना काकी से की होगी!

भाई ने दादी को जाने कैसे पटा रखा था! रोज़ शाम को छत पर वह पतंग उडाता और दादी मज़े से कुर्सी पर उसकी चरखी थामे बैठी रहती! घर में दादी के इस कार्य के बारे में किसी को पता नहीं था! एक दिन मम्मी छत पर पहुंची तब हँसते हुए उन्होंने पापा को छत पर ले जाकर दिखाया! बाद में भाई ने बताया...चरखी पकड़ने के बदले लास्ट में दादी पांच मिनिट पतंग उड़ाती थी और रोज़ एक पतंग कटवा देती थी!

दादी हमेशा किसी न किसी बात पर हम सबको चौंका देती थीं! एक दिन मेरे पास दादी का एक मेल आया...एक्जाम में अच्छे नम्बर लाने पर उन्होंने एक ई कार्ड भेजा था! दादी का मेल.....मेरे हैरत का ठिकाना नहीं था! इसका राज़ भी बाद में खुला! रोज़ शाम को दादी मंदिर जाती थीं लेकिन पिछले एक हफ्ते से मंदिर की जगह वो प्रिया के घर जा रही थीं! सात दिन में उन्होंने प्रिया से मेल आई डी खोलकर मेल करना सीख लिया...सिर्फ मुझे सरप्राइज़ कार्ड भेजने के लिए! मुझे अपनी दादी पर बड़ा फक्र हो रहा था! किसी की दादी को कंप्यूटर नहीं आता था...सिवा मेरी लाडली दादी के!
दादाजी को गुज़रे कई साल हो गए थे! मेरी समझ से शायद दादा दादी ने एक साथ बहुत अच्छा जीवन जिया था इसलिए दादाजी का ज़िक्र आते ही उनकी आँखों में एक चमक आ जाती थी और होंठों पे अनगिनत किस्से! पर दादाजी को याद करके मैंने उन्हें कभी रोते या उदास होते नहीं देखा ! मैं सोचती थी कि शायद पुराने लोग ज्यादा रोमांटिक नहीं होते होंगे इसलिए उनकी मोहब्बत में वो तड़प नहीं आ पाती होगी! जब मैंने कॉलेज जाना शुरू किया तब दादी आहिस्ता आहिस्ता मेरी दोस्त बनने लगीं! मुझे याद है एक दिन बेवजह उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए देखा था तो जान गयी थीं कि मैं अपने पहले प्यार वाले दौर से गुज़र रही हूँ! और फिर एक दिन दादी के जन्मदिन वाले दिन...मैंने दादी के साथ सोने की जिद की! दादी जन्मदिन के दिन खूब खुश रहती थीं! दिन भर घर के सभी लोगों के साथ रहतीं...पर रात को हमेशा जल्दी सोने चली जातीं! शायद थक गयी होंगी...हम सब यही सोचते! लेकिन उस दिन मैं दादी से ढेर सारी बातें करना चाहती थी! दादी ने थोड़ी देर सोचने के बाद मुझे अपने कमरे में सोने की इजाज़त दे दी! वो रात मैं कभी नहीं भूल पाउंगी...उस रात ने चंद घंटो में मुझे न जाने क्या क्या दे दिया! दादी और हम रात को जल्दी कमरे में चले गए! दादी ने मुझे बताया कि दादाजी हमेशा दादी का जन्मदिन पर उन्हें अपने हाथों से सजाते थे...बताते बताते दादी की आँखों में पानी तैर आया था! दादी एक बार फिर दादाजी के लिए तैयार हो रही थीं! और मैं उन्हें दादाजी की फेवरिट साडी पहना रही थी! सचमुच उस पर्पल कलर की साड़ी में दादी बहुत खूबसूरत लग रही थीं!मैंने उन्हें इस तरह पहली बार देखा था! लग रहा था दादी एक पूरा ज़माना पार करके कहीं बहुत पीछे लौट रही थीं! वो हर साल ये सफ़र तय करती थीं! इस बार में इस सफ़र में साथ थी! मैं बहुत खुश थी! फिर दादी ने अपने संदूक खोला ...उसमे से एक पुरानी कैसेट निकाली....और मुझे उसे टेप में लगाने को कहा! दो पल बाद ही गाना बज उठा " हंसिनी...ओ मेरी हंसिनी, कहाँ उड़ चली " दादी की आँखें बंद थीं और मुझे पता था इस वक्त वो दादाजी के साथ थीं ! गाना ख़तम होने के साथ ही दादी ने आँखें खोली! दादी की पनीली आँखों के साथ मुस्कुराते होंठ....दादी इस समय दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत लग रही थीं! ' तेरे दादाजी को ये गाना बहुत पसंद था...हमेशा मेरे लिए गाया करते थे " दादी बताते हुए शरमा गयी थीं! फिर दादी ने जाने कहाँ से एक डेयरी मिल्क निकाली! हम्म...ज़रूर भैया के किसी दोस्त से चुपके से मंगवाई होगी! दादी के सरप्राइजो की अब तक आदत पड़ चुकी थी.... लेकिन दादी ने उनके सबसे ख़ास पल जो मेरे साथ बांटे थे...वो मेरे लिए अब तक का सबसे बड़ा सरप्राइज़ था! मैंने कैसे दादी को अनरोमांटिक समझ लिया था...मैं उस पल सोच रही थी काश मेरी जिंदगी में भी कोई इतना ही प्यार करने वाला आये!
दादी आज अस्पताल में हैं....डॉक्टर नाउम्मीद दिखाई दे रहा है! डॉक्टर के बाहर आते ही मैं दौड़कर आई.सी.यू. में पहुंची! दादी हड्डी का ढांचा भर दिखाई दे रही हैं! मुझे देखकर दादी ने आँखें खोली हैं और दर्द में भी एक मुस्कान होंठों पर आ गयी है! मेरे लाख कोशिश करने पर भी करने पर भी अपने आंसू नहीं छिपा पा रही हूँ! मुझे रोते देखकर दादी ने एक आँख दबाने की कोशिश की मगर हमेशा की तरह दोनों ही झपक गयी! मैं हंस पड़ी ! अब मुझे यकीन हो गया है दादी फिर से बहुत बड़ा सरप्राइज़ देने वाली हैं ...डॉक्टर को और हम सभी को!

दादी की आँखों में एक ज़माना रहा करता है
एक एक झुर्री गुज़रे सालों का हिसाब है....i love u dadi.

Saturday, December 4, 2010

अबरा का डबरा ..छुटकी का जादू


ए.सी. सेकण्ड कोच....बर्थ नंबर ११,१२,१३,१४! एक पापा,मम्मी, पांच साल का बड़का और तीन साल की छुटकी! ट्रेन चलते चलते रात पार कर चुकी है! परदे हटाते ही सूरज की रौशनी सबको जगा चुकी है....सब जाग चुके हैं सिवा छुटकी के! थोड़ी देर में छुटकी भी जाग जाती है और अपनी नहीं नहीं हथेलियों से आँखें मलती है! आँखें बड़ी बड़ी करके हैरानी से सूरज को देखती है...." मम्मी...अभी मैं सोयी थी तो अँधेरा था न?" मम्मी कुछ बोले इससे पहले ही बड़का कहता है " मैंने जादू से अँधेरा भगाया है ,,,,अब तू जादू से वापस लेकर आ अँधेरा!" छुटकी दो मिनिट सोचती है...." मैं भी जादू करुँगी पापा...."

बड़का शरारत से मुस्कुरा रहा है....छुटकी के माथे पर बल आ गए हैं! कहाँ से लाये वापस अँधेरा.?
अंत में हारकर छुटकी मम्मी पापा की शरण में आ गयी है...." मम्मी अब आप ही जादू से अँधेरा वापस लाओ.." मम्मी ,पापा के साथ हम सब भी हंस रहे हैं! छुटकी का मुंह बिगड़ना शुरू हुआ और छुटकी जोर से रो पड़ी! स्थिति अब गंभीर हो गयी! बड़का अभी भी मुंह चिढ़ा रहा है ! छुटकी ने ज़मीन पर लोट लगा दी है! अब मम्मी पापा समेत सब परेशान है....पापा ने छुटकी से आँखें बंद करने को कहा और झट से सारे परदे बंद कर दिए! अँधेरा जैसा हो गया है! छुटकी आँखें खोलते ही मुस्कुरा दी है और हाथ नचाकर बड़के को अंगूठा दिखा रही है! बड़का होशियार ....झट से परदे हटा दिए! छुटकी का रोना दोबारा चालू हुआ और इस बार तो रोते रोते हिचकी बंध गयी! ट्रेन होशंगा बाद के पास पहुँचने वाली है.....एक बन्दा उठकर पापा के कान में कुछ कहता है! पापा छुटकी से कहते हैं " अच्छा ...मैं जादू से अँधेरा वापस लाऊंगा पर बस एक मिनिट के लिए! उसके बाद फिर सूरज को निकलने देना! छुटकी और बड़का दोनों राजी हैं! पापा दस मिनिट बाद अबरा का डबरा टाइप कुछ बोलते हैं! और एक मिनिट के लिए घुप्प अँधेरा छा जाता है!छुटकी ताली बजा कर हंस रही है! बड़का परदे हटा हटा कट बाहर झाँक रहा है! ये जादू कैसे हो गया.....! ट्रेन कुछ पलों में टनल से बाहर आ गयी ! छुटकी का चेहरा और आँखें चमक रही हैं और होंठों पर खिलखिलाहट गूँज रही है! और बेचारा बड़का अभी भी हैरान परेशान सा इधर उधर देख रहा है!

Tuesday, October 5, 2010

बिखरे सामान में सिमटती खुशियाँ...


शाम गहराती जा रही है! आज शाम का रंग रोज़ से ज्यादा गहरा है! शायद मेरी उदासी का रंग भी इसमें आ मिला है! उदासी भी हमेशा कहाँ एक रंग की होती है...कभी ये उगते सूरज की धूप को मटमैला बना देती है...कभी मेरे कालीन के लाल रंग को और सुर्ख कर देती है! उदासी भी अब एक आदत सी बन चुकी है! दूध वाले ...अखबार वाले की तरह इसका आना भी रूटीन बन गया है और कभी कभी नागा करना अखरने भी लगा है! मैं आज भी माल रोड के किनारे एक लेम्प पोस्ट के नीचे एक बेंच पर बैठा हूँ! अब इस बेंच पर कोई नहीं बैठता है..जैसे हर कोई मुझे मेरी उदासी के साथ अकेले छोड़ देना चाहता है! अभी लेम्प जल उठेगा....और इसका पीलापन मुझ पर बरस उठेगा. तब मेरी उदासी का रंग पीला हो जायेगा! कल मेरी शादी है...उफ़ मैं इस बारे में नहीं सोचना चाहता! काश सर झटकने से ख़याल भी झटक कर ज़मीन पर गिर पड़ते और मैं अपने पैरों तले उन्हें रौंद सकता!

तीन बरस पहले भी तो मैं इसी तरह एक बेंच पर बैठा था...तब मन में शादी के ख्वाब थे और वो ख्वाब लेम्प की पीली रौशनी में और चमक उठे थे! अगले दिन रीना घर आने वाली है...यह सोचकर मैं मुस्कुरा उठता था! और अगले दिन रीना आ गयी थी!

ये टॉवेल बेड पर क्यों है... अपना चादर घडी नहीं किया..? सुबह की खुमारी रीना की आवाज़ की तल्खी में बह निकली! मुझे महसूस हुआ मानो...किसी वार्डन को ब्याह लाया हूँ!मेरा अस्तव्यस्त जीवन ही मेरी पहचान था..चंद ही दिनों में मेरी पहचान एक अजीब सी व्यवस्था के इर्द गिर्द चकराई सी घूमने लगी थी! और शिमला में हनीमून के वो हसीं दिन....मैं जी जान लगाकर उसे समझने की कोशिश कर रहा था! इतनी जान अगर मैथ्स में लगायी होती तो इंजीनियर बन गया होता! पर मैथ्स से भी ज्यादा कठिन थी रीना! उसकी आवाज़ पर मैं सहम जाता..! उसे चूमते हुए भी एक डर सा लगा रहता...कहीं किस करने के तरीके पर ही न टोक दे! मेरा व्यक्तित्व करवट ले रहा था...एक ऐसी करवट जिसे लेते हुए मेरा जिस्म दुखने लगता था! मेरा अपना कमरा मुझे होटल रीजेंसी के डीलक्स रूम की याद दिलाता था! आईने में जब खुद को देखता तो मुझे मेरी जगह एक निरीह मेमना दिखाई देता था! कभी कभी रीना मुझे एलियन की तरह दिखाई देती थी....जैसे पता नहीं किसी दूसरे गृह से कोई उड़न तश्तरी आकर इसे मेरे घर में उतार गयी हो! इतना अजनबी तो मुझे सड़क पर रिक्शा खींचता या फिल्म की टिकट लाइन में मेरे पीछे खड़ा आदमी भी कभी नहीं लगा था! फिर एक दिन जैसे उड़नतश्तरी उसे लेकर आई थी...वैसे ही लेकर चली गयी! मैं घर में अकेला खड़ा था! मैंने गहरी सांस ली..राहत की कुछ बूँदें ज़मीन पर गिर कर बिखर गयीं! मुझे याद है..उसके जाने के बाद मैं भाग कर अपने कमरे में गया था और न जाने कौन से जूनून में कमरे का सारा सामान बिखेर दिया! फर्श पर पड़े मेरे कपडे...टेबल पर खाली पानी की बोतलें और पलंग पर किताबें, सिगरेट का पैकेट, मोबाइल और अखबार फैले देखकर जैसे मुझे मेरा खोया हुआ वजूद मिल गया था!

"उठो भाई..रात हो गयी! घर नहीं जाना?" एक पुलिसवाला अपना डंडा सड़क पर ठोक रहा था! मैं चुपचाप उठा और घर की तरफ चल दिया! कल आने वाली सुबह से मन खौफज़दा था! इसका नाम रजनी है...पर नाम रजनी हो या रीना क्या फर्क पड़ता है! हे ईश्वर इस बार मैं खुद को खोना नहीं चाहता वरना फिर कभी न पा सकूँगा! रजनी माँ की पसंद थी! माँ के बार बार कहने पर भी मैं उससे मिलने की हिम्मत नहीं जुटा सका था! रीना का हंटर अभी भी मेरे दिमाग पर शायं शांय करता लहराता था! अगली सुबह आई...रजनी घर में दाखिल हो गयी और रात को मेरे कमरे में! सुबह देर तक आँख लगी रही! उठकर देखा तो रजनी नहीं थी! मैं आलथी पालथी मारकर शून्य में घूरता पलंग पर बैठा रहा! तभी बाथरूम का दरवाजा खुला और धुले बालों की महक मेरी सांसों को ताजगी से भर गयी! मैं एकटक उसे देख रहा था! आसमानी गाउन पहने कंधे तक छितराए बालों पर टॉवेल लपेटे हुए जैसे आसमान से उतरी हुई परी नज़र आ रही थी! नहीं..ये एलियन नहीं हो सकती! रजनी मुझे देखकर मुस्कुरायी और टॉवेल उतारकर सोफे पर रख दिया! गीली स्लीपर्स से कमरा गीला होकर पच पच करने लगा! मैंने धीरे से उठकर बाथरूम का दरवाजा खोलकर देखा....गीले फर्श पर साबुन पड़ा था...जो मुझे देखकर मुस्कुरा उठा! मैं दौड़कर आया और रजनी को कस कर गले लगा लिया! ख़ुशी के मारे मेरी साँसें धौकनी की तरह चल रही थीं! मैंने आईने में देखा...मैं वहाँ मौजूद था अपने पूरे वजूद के साथ!

Friday, August 20, 2010

मनसुख कवि कैसे बना..?

कविवर कोई ऐसी युक्ति बतलाइए की मैं शीघ्र ही अच्छे कवियों में स्थान पा जाऊ .” जमीन पर उकडू बैठा मनसुख कवि कालजईदिग्गजके चरण दबा रहा था .मनसुख के मन में एकाएक कवि बनने की लालसा जग गयी थी !यूं मनसुख कोई कवि ह्रदय लेकर पैदा नहीं हुआ था.मनसुख का बाप पहले कवि वर के घर नाई का काम करता था .एक दिन बेचारे को लकवा मार गया .अगले दिन से मनसुख काम पर गया .आठवी कक्षा का होनहार छात्र मनसुख नया काम पाकर बहुत खुश हुआ .गणित ,संस्कृत और अंग्रेजी से मुक्ति मिल गयी थी साथ ही मास्टर जी की संटियों से भी .नए काम में मेहनत कम थीकवि वर की खोपड़ी पर कुल जमा 20-25 बाल थेउन्ही की मालिश करवाते थेलगे हाथ लम्बे बालों की कटाई छटाई भी करवा लेते थे और कभी कभी अपनी सूखी लकड़ी सी देह की मालिश भी करा लेते थे . कविवर की देह भी उनके कवि ह्रदय के सामान नाज़ुक थीज्यादा कड़क हाथ बर्दाश्त कर पाती थी इसलिए मनसुख का काम देह पर हाथ फिराने भर से चल जाता था! कभी कभी उसमे भी कवि की आह निकल जाती तो सफाई का कपडा उठाकर मेज की तरह देह को भी झाड देता था.वही मालिश का काम कर देता था. दो तीन साल से इसी तरह शरीर झाड़ते झाड़ते कवि की कवितायें भी कानों में पड़ती रही. शुरू में तो मनसुख का मन होता की यही झाड़ने वाला कपड़ा कवि के मुंह में ठूंस दे किन्तु नौकर मालिक के सम्बन्ध ऐसा करने में आड़े आते थे इसलिए मनसुख उस कपडे को कवि के मुंह की जगह अपने कानो में ठूंस लेता था.
लेकिन एक बात उसके बालमन को हमेशा सोच में डाल देती थी कि जिस कवि की कवितायें सुनकर उसे ताप चढ़ आता है उसी की कविताओं पर लोग वाह वाह कैसे कर लेते हैं .एक दिन कड़ा ह्रदय करके उसने कान में से कपड़ा हटा दिया और पूरा कवि सम्मलेन सुना.मनसुख का कलेजा मुंह को आने लगा लेकिन मनसुख ने हार नहीं मानी .किसी योद्धा की तरह कविता के मैदान में डटा रहा . वह ध्यान से सम्पूर्ण कवि सम्मलेन की प्रक्रिया का मनन करता रहा . कविवर की हर कविता पर लोग भेड़ के समान सर हिलाकर वाह वाह का उच्चारण करते थे .उसने बड़े गौर से आखिरी पंक्ति में बैठे हुए एक कवि को देखा जिसकी वाह वाह की ध्वनि अन्य सभी से अधिक थी. उसे रहरह कर नींद के झोंके आते थेबदन हर कविता पर कांप कांप जाता थारह रह कर शरीर में सिहरन होती थी रोंगटे तो परमानेंट खड़े हुए थे लेकिन उसके मुंह से किसी मिसाइल की तरह वाह वाह के गोले लगातार छूट रहे थे .मनसुख इस पहेली को नहीं बूझ सका. वह लगातार मनन करता रहा.तभी उसकी निगाह सबसे आगे की पंक्ति में बैठे हुए एक भद्र पुरुष पर पड़ी ..वह बड़ी शान्ति से कविता को सुन रहे थे .उनकी मुख मुद्रा भी पुष्प के समान खिली हुई थीवे लगातार सर हिला रहे थे कविता के बीच में ही वाह वाह कर उठते थेकविवर भी उनकी असमय वाह वाह से चौंक पड़ते थे . मनसुख ने निश्चय किया कि इन्ही सज्जन के समीप चलकर बैठना उचित होगा . वह धीरे धीरे सरकता हुआ उन सज्जन के पास पहुँच गया एकदम सटकर बैठ गया. मनसुख बड़े गौर से सज्जन का अवलोकन कर रहा था . तभी उसे उन सज्जन के मफलर के नीचे से झांकता हुआ एक पतला सा तार दिखाइ दिया . उसने और ध्यान से देखा ..उनके कुरते की दाहिनी जेब थोड़ी भारी महसूस हुई ….मनसुख ने उन सज्जन से सटते हुए जेब को छुआ तो अन्दर कुछ थर्राता महसूस हुआ. मनसुख और सट गया ….उसे बहुत धीमी गाने की आवाज़ सुनाई दी …” आजा आई बहार , दिल है बेकरार …. मेरे राजकुमारमन सुख का सर भी गाना सुनकर हिलने डुलने लगा. अचानक उसके मुंह से भी निकलाआहा ..क्या बात है कविवर ने कविता रोककर दो पल मनसुख को देखा और दोबारा कविता पाठ शुरू कर दिया. मनसुख ने धीरे से सज्जन से कहाहेड फोन का एक सिरा मेरे कानो में दे दोमैं भी अच्छे से सुनूंगा .सज्जन ने सकपका कर शॉल ऊपर सर तक ओढ़ लिया
अब मन सुख को समझ आया कि कवियों का सम्मान शॉल देकर क्यों किया जाता है .मनसुख ने उसी घडी निश्चय किया कि एक शॉल और एक आइपौड खरीदेगा औरहर कवी सम्मलेन में बैठकर सभी अंड बंड कवितायें पढ़ते कवियों को सुनेगा! सो ऐसा विचार कर मन सुख दोनों सामग्री खरीद लाया! शॉल ओढने से आदमी कवि सम्मेलन में जाने लायक गरिमा प्राप्त कर लेता है...मनसुख ने भी शॉल ओढने से कवि सम्मेलन में जाने की योग्यता प्राप्त कर ली!कविवर भी भारी प्रसन्न हुए कि उनकी काव्य प्रतिभा ने एक नाई के मन में कविता के भाव जगा दिए! अब होता क्या है कि मनसुख के मन के भाव पलटी खाते हैं.... श्रोता से कवि बनने की चाह उछालें मारने लगी मनसुख के मन में! तरह तरह के कवियों को सुनने के बाद उसे पूर्ण विश्वास हो गया था की वह भी एक उच्च कोटि का कवि बन सकता है! थोड़ी सा कविवर से कविता बनाने का ज्ञान मिल जाये तो वह भी लोगों के रोंगटे खड़े करने में सक्षम है..ऐसा सोचकर बड़े झिझकते झिझकते उसने कवि के पास उकडू बैठकर वह बात कही....जहां से कथा शुरू होती है! पाठक पुनः एक बार शुरूआती पंक्तियों पर जाने का कष्ट करें...." कवि वर...बताइए , मैं भी कवि बन जाऊंगा ? मैं भी आपकी तरह कविता कर सकूँगा ?"
" बेटा...कवि तो मैं तुझे बना दूंगा ..मगर मेरे जैसा बन पाना तेरे लिए इस जीवन में संभव नहीं है" कविवर ने बेहद गंभीर मुद्रा इख्तियार करते हुए कहा!
मनसुख ने झट से दांतों से अपनी जीभ काटी...धत ये क्या कह गया मैं " नहीं नहीं ..कवि वर ..आपके जैसा तो आज तक इस प्रथ्वी पर कोई हुआ ही नहीं है और आगे के दो चार सौ सालों में कोई होगा....और मैं तो कहता हूँ अगर कोई माई का लाल ऐसी कविता करने भी लगा तो समझो आपने ही पुनर्जनम लिया है"
कवि गदगदा गए अपनी प्रशंसा से....उन्होंने मनसुख को अपना चेला बनाना स्वीकार किया!
" देखो बेटा कविया के कई प्रकार होते हैं...तुम उझे बताओ तुम किस विधा में पारंगत होना चाहते हो"
" आप प्रकार बताएँ कविवर" मनसुख ने इस स्टाइल में कहा जैसे एक ग्राहक साडी की दूकान पर जाकर हर वैरायटी दिखने को कहता है !
कविवर ने कविता के थान दिखाने शुरू किये!मनसुख हर थान को भली प्रकार खोल कर जांचने लगा...
" बेटा पहले प्रकार की कविता वह होती है जिसमे तुक से तुक मिलानी पड़ती है..जैसे ये फ़िल्मी गाने होते हैं जैसे " सैयां दिल में आना रे, आके फिर जाना रे "
" समझ गया गुरु जी जैसे..." जीजी आई...मिठाई लायी.." मनसुख इतना भयंकर जोश में आया कि कवि महाराज कुर्सी से टपकते टपकते बचे!
हाँ हाँ ठीक है...ज्यादा जोश में आओ" कवि कुर्सी के अचानक डोलने से बौखलाए हुए थे! उन्हें एक बार तो लगा उनका सिंहासन डोल गया!
" दूसरा प्रकार वह होता है जिसमे भाव मायने रखते हैं...इसमें तुकबंदी जरूरी नहीं होती है! "
" जैसे ?"
" जैसे कि " मेरे नैना सावन भादो ..फिर भी मेरा मन प्यासा"
" समझ गया गुरु जी... आगे बढिए"
अगला प्रकार वह होता है जिसमे कोई तुक होती है.. कोई भाव! यह कविता का सबसे आधुनिक रूप है...इसमें श्रोता अपनी समझ के अनुसार कविता में भाव ढूंढ लेता है"
" वो कैसे गुरु जी....ये समझ नहीं आया" मन सुख ने अपनी खोपड़ी खुजाई!
हम्म..जैसे
" मैं खड़ा हूँ, एक पेड़ कि तरह मगर
कोई भी नहीं बनता घोंसला मुझमे
आह..क्या पत्तों की सरसराहट ही मेरे भाग्य में है
धूप की कुल्हाड़ी मुझे काटे जाती है
दूर एक खिड़की में कैद चाँद फडफडाता है
ये कैसा बोझ कंधे पर ढोता हूँ मैं..."

कवि इतना कहकर शांत हो गए....और मन सुख को निहारने लगे!
मनसुख को काटो तो खून नहीं..उसके सारे बाल चौकन्ने होकर खड़े हो गए थे! आँखों की पुतलियाँ फ़ैल कर दो दो गज की हो गयी थीं! बड़ी मुश्किल से थूक गटक कर बोल पाया " ये क्या था गुरुवर?"
गुरूजी हंस पड़े..." बेटा तुझे क्या समझ में आया"
" कुछ भी नहीं"
" बेटा यही सबसे सरल रूप है कविता का...लिखने वाले का अठन्नी दिमाग खर्च नहीं होता और सुनने वाले के प्राण निकल जाते हैं इस पहेली को बूझने में! अगर समझ पाए तो खुद को मूर्ख समझ कर हीन भावना का शिकार होने लगता है....इसलिए अपनी बुद्धि से जुगाड़ तुगाड़ कर कोई कोई अर्थ निकाल ही लेता है और अपनी ही विकट समझ पर वाह वाह करने लगता है!"
समझ गया गुरु जी...तुकबंदी भिड़ाने में दिमाग लगाना या कविता में भाव पैदा करना मेरे बस की बात नहीं है! मुझे तो यही प्रकार एकदम से जँच गया ....जब मैं स्कूल में मास्टरजी के सामने कुछ भी अल्ल गल्ल बकता था तो संटी पड़ती थी...यहाँ वाह वाह मिलेगी"
मनसुख के सर के चौकन्ने बाल शांत होकर अपने अपने स्थान पर बैठ गए! मनसुख ने उत्साहित होकर तुरंर एक कविता का निर्माण किया!
" अजीब सी उधेड़बुन मन के भीतर
कंकड़ पत्थर समेटकर बनाता हूँ एक पुल
जिस पर होकर सागर पहुँचता है आसमान के परे.."
कविता पाठ ख़तम का मनसुख ने देखा....सामने दीवार पर बैठी गौरैया कातर द्रष्टि से मन सुख को देख रही थी! उसके पंख बेचैनी से फडफड़ा कर रहम की भीख मांग रहे थे!
वाह वाह...कितनी बेतुकी कविता है " गुरु जी हर्ष से बोले " तेरा भविष्य उज्जवल है मनसुखा ..अब तेरे पैर कोई नहीं पकड़ सकता!"
अगले दिन से ही मनसुख की कविताओं के निर्माण का महा भयानक दौर प्रारम्भ हुआ...गुरु जी अपने कानों में कपडा ठूंसने लगे! गौरैया समेत अन्य सभी पक्षी...चूहे..बिल्ली अपना ठिकाना कहीं और ढूँढने सामान सट्टा लेकर निकल पड़े! मनसुख कवि सम्मेलनों में जाकर अंड बंड कवितायें सुनाता रहा.. मनसुख का नाम सुनने मात्र से लोगों के रोंगटे खड़े होने लगे!.शहर में आइपौड और वॉकमेन की बिक्री ४० प्रतिशत पढ़ गयी!अपना मनसुखा आधुनिक कवियों में शीर्ष स्थान पा गया! अभी अभी खबर आई है की मनसुख की एक कविता को कोई राज्य स्तरीय सम्मान प्राप्त हुआ है..और शॉल भेंट कर मन सुख को सम्मानित किया गया है!
मन सुख की पुरस्कार प्राप्त कविता निम्नानुसार है
" हर सवाल के भीतर छुपा है कोई ज्वार का खेत
जिसमे उगते हैं मकई के दाने और
सूरज की चौथी किरण से जाग उठते हैं
सवाल के अन्दर पनपते हुए जवाब...
ऐसे सवाल बन जाते हैं एक मिसाल
और उनके जवाब खोजती रहती है
स्वयं स्रष्टि...."