एक दिन
पहाड़ की गोद से मचलकर एक नदी फिसल कर भागी
पर्वत मुस्कुराकर आवाज़ देता रहा
नदी एक हिरनी की तरह कुलांच भरती रही
पहाड़ जागता हुआ सचेत खड़ा है एक पिता की तरह
नदी मैदानों में सितोलिया खेल रही है
घाटियों से गुज़रते हुए कोई अलबेली धुन गुनगुना रही है
कभी बेसुध हो नाच रही है तो कभी शहरो से गप्पें हांक रही है
कभी पलटकर पहाड़ को जीभ चिढ़ा रही है
पहाड़ बस मुस्कुराये जाता है
एक नन्ही बिटिया को पिता की ऊँगली थामे मेले में घूमते देखा था आसमान ने
और चाँद ने बलाएँ लेकर दुआएं बिखेरी थीं अंतरिक्ष में
नदी की दायीं बांह में बंधा है पहाड़ी मिटटी का तावीज़
और बालों में टँकी है एक मेले से खरीदी हेयरपिन
नदिया दौड़े जाती है आँखें मीचे
अपने किनारों के कांधों पर चढ़कर
और रात को
थक कर सो जाती है सीने पर दोनों हाथ समेटे
पहाड़ सदियों से सोया नहीं है
उसके बाएं हाथ की ऊँगली में अटका है
नदी की फ्रिल वाली फ्रॉक का रेशमी बेल्ट
पहाड़ मोह में नहीं , पुत्री के प्रेम में है
आज़ादी उसका नदी को दिया सबसे बड़ा उपहार है
पिता की गोद से फिसलकर भी
कौन बिटिया ओझल होती है भला
अगर सिर्फ आँखें बंद कर लेना सोना नहीं तो
पिता कभी सोते नहीं
बिटिया को देते हैं दो सफ़ेद पंख
और बस करते हैं परवाह आखिरी सांस तक
.............................. ....(जागते पहाड़ , बहती नदिया )