चारों तरफ एक बेचैन सी ख़ामोशी पसरी हुई है...! मुझे डर लगने लगा है इस सन्नाटे से! बार बार पसीना पोंछता हूँ! कोई दूर ले जाओ इस ख़ामोशी को....जो कानों के अन्दर से घुसकर मेरे पूरे शरीर में रेंगने लगी है! मेरे कान तरस गए हैं शोर को! इस सन्नाटे में मुझे मेरा ज़मीर की आवाज़ बहुत साफ़ सुनाई देती हैं! मैं नहीं सुनना चाहता हूँ इसकी बकवास! झिंझोड़े डाल रहा है कोई मेरे अन्दर से मुझको! उफ़ कितना सर्द होता है ये सन्नाटा....मेरी रगों में खून जमा जा रहा है!
बेबसी में मैं देख रहा हूँ इधर उधर....हर आने जाने वाले से बात करने की गुहार करता हूँ! सब मुझे देखते हैं...उनके हिलते हुए होंठ दिखाई पड़ते हैं मुझे,..मेरे कानों को क्यों नहीं सुनाई देते! मुझ तक आने के पहले ही बर्फ बनकर ज़मीन पर गिरते जाते हैं! चारों और बर्फ ही बर्फ फैलती जाती है!
..कौन सी होगी वो आंच जो इस सर्द ख़ामोशी को पिघला देगी....क्या एक शापित की तरह मुझे जन्मों तक इंतज़ार करना होगा! दोनों हथेलियों को आपस में जोर से रगड़ता हूँ....बदले में मुझे एक चीखती हुई हंसी सुनाई देती है! ख़ामोशी हंस रही है मुझ पर!हंसी की आवाज़ तेज़ होती जा रही है....और तेज़! रेलवे स्टेशन की और भागता हूँ मैं बदहवास सा! ट्रेन ने सीटी दी है...मैं पास जाता हूँ उसे सुनने! पर सीटी में भी एक भयानक अट्टहास सुनाई देता है! मैं हार चूका हूँ! घटने के बल बैठकर मौत को बुला रहा हूँ! रोना चाहता हूँ जार जार मगर आंसू बर्फ बन कर आँखों के अन्दर ही कहीं चुभ रहे हैं!
पता नहीं कैसे मैं खुद को कब्रिस्तान में बैठा पाता हूँ! पीछे मुड़कर देखता हूँ....ख़ामोशी जलती निगाहों से देखती ठीक मेरे पीछे खड़ी है! मैं हाथ जोड़ रहा हूँ...अपना सर ज़मीन पर पटक रहा हूँ पागलों की तरह! ख़ामोशी का अक्स बदलता है...एक परछाई उभर रही है जो बहुत अजीब निगाहों से मुझे देख रही है! एक सुकून है उन निगाहों में...!
ये सुकून भरी निगाहें इतनी जानी पहचानी क्यों लगती हैं मुझको.....पहले कहाँ देखा है इन्हें? अचानक सब दिखाई पड़ने लगता है मुझको......कभी ये सुकून मेरी ही निगाहों में था और मेरी जगह हाथ जोडती, सर पटकती मेरे जवाब का इंतज़ार करती वो....! थककर खामोश हो गयी थी !
वही ख़ामोशी चीरे दे रही है मुझे..... दीमक की तरह कुतरे जा रही है! आह...वो कौन सी ऊष्मा होगी जो इस सन्नाटे को पिघला कर मेरे जिस्म से बाहर निकाल देगी! शायद पछतावे की....हाँ यकीनन! पर ख़ामोशी के इस हिम खंड को पिघलने में शायद सदियाँ लग जायेंगी........
24 comments:
अहंकार अक्सर पछतावे के रास्ते खड़ा होता है .....जमीर से रोज लड़ाई होती है ......कई बार खुद को टटोलना जरूरी है ....रिफ्रेश का बटन दबाना ...की भीतर शायद कुछ बदल जाए ......अच्छा लगा तुम्हाराआना
सचिन लम्बे अंतराल के बाद भी आता है तो सेंचुरी ठोंक देता है.. अच्छा हुआ जो रिफ्रेश का बटन दबा दिया.. इस बार टोटली डिफरेंट था.. और झन्नाटेदार भी..
कुछ गलत कदम और रास्ता खो गया
अहंकार में लिये गये एक गलत फैसले के कारण उम्र भर का पश्चाताप
खुद का जमीर तो धिक्कारेगा ही
बहुत पसन्द आयी यह रचना
प्रणाम स्वीकार करें
उफ़ पल्लवी, क्या लिखा है!
एक एक अक्स जैसे आइना बन जाता है सामने.बहुत कुछ दीखता है इसमें, कुछ यादें...एक सहमा हुआ भविष्य...जाने क्या क्या.
जोरदार एंट्री की बधाई
अहंकार मै ही हम कई बार बहुत गलत कदम ऊठा लेते है, ओर फ़िर ......जमीर या आत्मा की आवाज को कभी नही दवाना चाहिये, आप का लेख ओर चित्र दोनो ही सोचने पर मजबूर करते है
ज़मीर की आवाज़ न सुनने पर ऐसा ही होता है...."
amitraghat.blogspot.com
अंतर्यात्रा -खुद से खुद को मिलवाना...बहुत जरुरी है...बहुत डूब कर लिखा है. शानदार, बधाई.
बहुत दिनों बाद वापसी पर स्वागत.
बहुत अरसे बाद आपका लिखा पढ़ा...बहुत अच्छा लगा...आप ने कमाल के शब्द प्रयोग किये हैं...लिखती रहिये...
नीरज
ये ख़ामोशी दोपहर में पढ़ा था, काम में ऐसा खोया कि भूल गया क्या टिपण्णी करना है :)
शब्दों की जादूगरी छोटे छोटे टुकड़े में पढ़ते बन रही है ...
अर्श
सन्नाटा मन की वो पर्तें भी खोल कर रख देता है जो अन्जाने में हमारे जीवन में उभरने से रह जाती हैं ।
बहुत बढ़िया उम्दा प्रस्तुति ..आभार.
khud se ladayi .........behad umda prastuti.
इस सन्नाटे में मुझे मेरा ज़मीर की आवाज़ बहुत साफ़ सुनाई देती हैं! मैं नहीं सुनना चाहता हूँ इसकी बकवास!
सही है मच रहना सन्नाटे में, सन्नाटा शोर से भी खतरनाक होता है..
हम्म्म...कुश वाला "टोटली डिफरेंट" सच में।
चारों तरफ एक बेचैन सी ख़ामोशी पसरी हुई है.....
abhi kal hi se ham dono ke beech khamoshi shuru hui.....
aapne to meri haalat bayaan kar di hai...
very nice.....
आपकी ख़ामोशी का फलक बहुत व्यापक है. हर कोने में अहिस्ता - अहिस्ता पसरते हुए हिमखंड के आकार में ढली जा रही है.
पोस्ट को देखते ही बहुत देर तक चित्र से आँखें नहीं हटी...
लेखन और तस्वीर दोनों लाजवाब !
aham ya ahankaar sab se buri bala!! ye sahi hai ki ham sab bhi is se achhote nahin hain.
बहुत खूबसूरत शब्दो मे पिरोया है इसे आपने ।
ये सुकून भरी निगाहें इतनी जानी पहचानी क्यों लगती हैं मुझको.....पहले कहाँ देखा है इन्हें? अचानक सब दिखाई पड़ने लगता है मुझको......कभी ये सुकून मेरी ही निगाहों में था और मेरी जगह हाथ जोडती, सर पटकती मेरे जवाब का इंतज़ार करती वो....! थककर खामोश हो गयी थी !
kya baat kahee hai!
ये अर्न्तद्वन्द तो रोज़ ही होते है.. बस अपने आप के साथ कुछ पल चाहिये..जैसे बैठते है ऊष्मा की जरूरत महसूस होने लगती है...
सब कुछ इतना सर्द और बर्फ़ीला जो है..न जाने ये सब कब पिघलेगा..
झन्नाटेदार :)
आज दिनांक 22 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में यह पोस्ट एक सर्द खामोशी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
khamoshi apne aap mein ek cheekh si lagti hai aksar...
लेखन और तस्वीर दोनों लाजवाब !
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