Tuesday, May 4, 2010

वक्त का यूं मनमानी करना भी भला लगता है.....

मैं अक्सर सोचती हूँ.....
कई बार वक्त गुज़र कर भी क्यों नहीं गुज़रता....ढीट बनकर खड़ा रहता है! और कैसे कहे कोई इसे चले जाने को! वक्त से तकरार करना जैसे खुद को ही पराजित करना है! कई बार सोचती हूँ..मैं इस नामुराद के मुंह लगती ही क्यों हूँ मगर यादों का पुलिंदा उठाये यही तो चला आता है बार बार! जतन करके बिसारी हुई सारी यादें एक एक करके करीने से जेहन में सजाने लग पड़ता है! जैसे कोई पिट पिट के ढीट हो गया बच्चा...".हुह "
:जिस काम को मना करो वही करना है! ऐसा लगता है मानो घर का सारा इंटीरियर ही बदल गया! जहां मैं कुछ सदाबहार गाने....ख़ुशी में लिपटे हुए लिफ़ाफ़े....जिंदगी की शोर शराबे भरी रेल पेल....घर में ताज़ा रखे हुए रजनीगंधा की महक और एक स्माइली सहेज कर रखती हूँ....वहीं अचानक ये वक्त आ धमकता है और एक एक सामान फेंककर सजा देता है... कुछ पुराने ख़त जिनकी स्याही भी मिट चली है.., एक पुराने स्कूटर पर बैठे हुए दुनिया से बेपरवाह दो लोग....,झील किनारे की एक बेंच...,एक पुराना की रिंग....कुछ बिना नाम लिखे हुए ग्रीटिंग कार्ड्स और आंसुओं में गहरे डूबती हुई अनगिनत रातें! देखो तो कमबख्त ने पीछे धकेल धकेल कर कहाँ पहुंचा दिया है! जैसे ये वक्त कभी बीता ही न हो! मैं महसूस करती हूँ ...मेरी रगों में मेरे अलावा कोई और जाना पहचाना भी दौड़ने लगा है! मेरी साँसों के साथ एक सांस और सुनाई देने लगी है और किसी के छूने की सिहरन मुझे थरथरा देती है! यादों की मिठास और आंसुओं का नमक जैसे जिंदगी का जायका ही बदलकर रख देता है पर मुझे नहीं चाहिए ये स्वाद.....कभी जूने पुराने सामान को भी कोई सहेज कर रखता है भला? वक्त अभी भी ठीक मेरे सामने ठोड़ी पर हाथ टिकाये बैठा है और मुस्कुराता हुआ मुझे अपने साथ बहते हुए देख रहा है!

तभी अचानक किसी पल ऐसा लगने लगता है की यही सामान जिसे कबाड़ मानकर स्टोर की राह दिखाई थी! वही असली कमाई है मेरी! दो गर्म बूँद लुढ़क चली हैं मेरे गालों पर ! मैं वक्त को बाहों में समेट लेती हूँ और पूछती हूँ..
" क्या कभी इसी तरह उसके जेहन को भी इन्ही चीज़ों से सजा दिया करते हो?"

31 comments:

कुश said...

लगता है वक़्त अब सिर्फ किताबो में मिलने वाला है... डा. अनुराग भी ऐसी ही किसी ज़िन्दगी को पॉज करने की बात करते है.. होलीवूड की फिल्म थी 'क्लिक' जिसमे नायक के पास अपनी ज़िन्दगी को मेनेज करने के लिए एक रिमोट होता है.. काश ऐसा रिमोट सबके पास होता..!

इस बार सरकार बदले बदले से नज़र आते है...

Puja Upadhyay said...

आखिर की पंच लाइन किलर है. हम क़त्ल हो के बैठे हैं.

संजय भास्‍कर said...

तभी अचानक किसी पल ऐसा लगने लगता है की यही सामान जिसे कबाड़ मानकर स्टोर की राह दिखाई थी! वही असली कमाई है मेरी! दो गर्म बूँद लुढ़क चली हैं मेरे गालों पर ! मैं वक्त को बाहों में समेट लेती हूँ और पूछती हूँ..



बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

vandana gupta said...

" क्या कभी इसी तरह उसके जेहन को भी इन्ही चीज़ों से सजा दिया करते हो?"
इन पन्क्तियों ने तो दिल चीर कर रख दिया…………कुछ कहने की स्थिति मे नही हूँ।

वाणी गीत said...

मैं वक्त को बाहों में समेट लेती हूँ और पूछती हूँ..
" क्या कभी इसी तरह उसके जेहन को भी इन्ही चीज़ों से सजा दिया करते हो?"...
वक़्त तो यही रुक गया .. इसी सवाल पर ....
भाव शब्दों में समा नहीं पा रहे ...!!

स्वाति said...

वाह पल्लवी जी ,

कमाल की रचना ॥ आपकी खासियत है कि गहरी से गहरी बात को भी अत्यंत सरल शब्दों में प्रस्तुत कर देती हो , जो सीधे दिलो को छू जाते है और लगता है कि हम भी तो यही कहना चाहरहे थे ...
संवेदनशील प्रस्तुति.

Abhi said...

Dream in real life is amazing

अभिनव उपाध्याय said...

achchhi prastuti badhai, kuchh-kuchh, bahut kuchh aur ant me sabkuchh.....??????????

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi badhiyaa

रंजू भाटिया said...

" क्या कभी इसी तरह उसके जेहन को भी इन्ही चीज़ों से सजा दिया करते हो?" बहुत खूब ..लगता नहीं यह पल कहीं और भी गुजरता होगा ..

Vikas Bhatnagar said...

बहुत सुंदर अभियक्ति.. ..कुछ अहसास सिर्फ वक़्त ही बया कर सकता है

डॉ टी एस दराल said...

यादें --अक्सर दिल को सुकून दिया करती हैं।
सुन्दर प्रस्तुति।

M VERMA said...

ऐसा लगने लगता है की यही सामान जिसे कबाड़ मानकर स्टोर की राह दिखाई थी! वही असली कमाई है मेरी!
जवाब नहीं
वाह -- बहुत खूब

प्रवीण पाण्डेय said...

मौलिकता भावों में है । वह पूर्ण है आपके भावों में व अभिव्यक्ति में । मन के क्रन्दन को शब्दों की भाषा में पुनः देखा आज । यूँ ही बहते रहिये ।

Shekhar Kumawat said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति बहुत गहराई से लिखा है


badhai aap ko is ke liye

दिलीप said...

dil khol ke sab bayan kar diya...bahut khoob aakhri pankti to jaandaar hai...

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

उफ़्फ़्फ़...
इसी दिन और समय से तो सबकी लडाई है.. ज्यादातर वही आगे रहता है.. हमे कभी कभी पीछे भी ले जाकर आगे वही रहता है

शिल्प और पन्क्तिया नही ढूढूगा बल्कि डूबना चाहूगा इन नदियो मे जो आपके शब्द रचते है..

गोया, आखिरी सवाल कितना मासूम है.. शायद सबको इसका जवाब चाहिये...

Smart Indian said...

वही ज़ालिम वक्त!

जितेन्द़ भगत said...

यादों के इस क्षण को बहुत खूबसूरती से सजाया है आपने।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

स्मृति के एक एक क्षण को जैसे आपने जिया है....

और अंतिम पंक्ति तो बस...

" क्या कभी इसी तरह उसके जेहन को भी इन्ही चीज़ों से सजा दिया करते हो?

बहुत खूबसूरती से अपने एहसास लिखे हैं

दर्शन said...

आखिर में पूछा गया सवाल कितना निरूत्तर सा बैठा रहता है हमेशा हमारे जेहन में !!
सच ही है !!

डॉ .अनुराग said...

तुम जब इस तरह से लिखती हो......मुझे कोई ओर पल्लवी नज़र आती हो.....पर ये पल्लवी मुझे ज्यादा पसंद है .भावुक सी....

Udan Tashtari said...

देखो तो कमबख्त ने पीछे धकेल धकेल कर कहाँ पहुंचा दिया है!

-ये तो मैं तुम्हारे इस आलेख के लिए कहने वाला था.

बहुत बेहतरीन..जबरदस्त!!

अरुणेश मिश्र said...

जीने की अभिनव जिजीविषा ।
प्रशंसनीय ।

Abhishek Ojha said...

वक्त कभी जालिम लगता है कभी यार. कहाँ से कहाँ ले जाता है ये भी.

कडुवासच said...

... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!

डिम्पल मल्होत्रा said...

ufff!etna khoobsurat bhi bhala koee likhta hai!!

शरद कोकास said...

निर्जीवों की संवेदना का बखूबी बयान है इन पंक्तियों मे ।

Shiv Nath said...

Kuch prashan sada anutatrait hi rah jaate hain. Badhiya rachna.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

इस बार कुछ लिखने को मन नहीं कर रहा.......इस बात को महसूसने का मन कर रहा है.....आपके इस वक्त के साथ मैं भी कुछ देर के लिए ठहर गया हूँ....हालाँकि भूत कहीं ठहरा नहीं करते.....!!!!

Ra said...

gazab ...aur kamaal