Thursday, May 5, 2011

एक सरकारी फ़ाइल की आत्मकथा


मैं एक सरकारी दफ्तर की फ़ाइल हूँ!मैं शासन को चलाने में महत्वपूर्ण योगदान देती हूँ!बल्कि यूं समझो की मेरे बिना कोई सरकार चल ही नहीं सकती!मैं आगे बढती हूँ तो सरकारी कामकाज आगे बढ़ता है!अगर मैं रुक जाऊ तो काम भी रुका समझो...सरकार का नहीं जी, जनता का!

मैं धनाकर्षण बल के सिद्धांत पर कार्य करती हूँ!और मेरा ईंधन भी यही है!यदि मेरा पेट नोटों से भरा रहता है तो मेरी गति देखने योग्य होती है!मैं निर्धारित समय सीमा में गंतव्य स्थान तक पहुँच जाती हूँ!गरीब गुरबों को मुझसे दूरी बनाकर रखना चाहिए!जैसे जैसे मुझ पर भार बढ़ता जाता है मैं एक टेबल से दूसरी टेबल पार करती हुई बड़े साहब की टेबल पर पहुँच जाती हूँ!जिनके पास धन नहीं है उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है!धनाभाव में किसी मिनिस्टर या बड़े अधिकारी की एप्रोच से भी काम चल सकता है!पर ऐसे में मेरे मालिक " मेरे बाबू " ज्यादा खुश नहीं होते!

सिद्धांत के मामले में कभी समझौता नहीं करती!मेरे लिए अमीर, गरीब, लाचार , अपंग सब बराबर हैं!बिना सेवा के मैं भी किसी की सेवा नहीं करती! कभी कभी कोई बेवकूफ किस्म का बाबू या अधिकारी मुझे बिना वजन के ही आगे बढाने की कोशिश करता है! किन्तु शीघ्र ही ऐसे बेवकूफ मुसीबत में फंस जाते हैं और उनके खिलाफ गुमनाम शिकायतों का सिलसिला शुरू हो जाता है!लेकिन मैं जानती हूँ ,ये गुमनाम लोग मेरे भ्रष्ट आका ही होते हैं जो ऐसे ईमानदार बेवकूफों को अपने रास्ते से हटाना भली प्रकार जानते हैं!जल्दी ही ऐसे लोग लाइन पर आ जाते हैं और दोबारा लीक से हटने का साहस नहीं करते!

एक राज की बात और बताऊँ...मैं केवल जनता को ही नहीं बल्कि शासकीय कर्मचारियों को भी नहीं बख्शती!पेंशन, अवकाश, जी.पी,एफ. और यात्रा देयक सम्बन्धी कार्य के लिए यदि मुझ पर वजन न रखा जाये तो मैं दफ्तर की अलमारी के ऊपर धूल खाती देखी जा सकती हूँ!कई लोग ऐसे भी हैं जो आज के युग में गांधी जी के सिद्धांतों पर चलने की मूर्खता करते हैं और व्यवस्था के आगे घुटने नहीं टेकते !मैं ऐसे ही एक महाशय का किस्सा आपको सुनाती हूँ! एक सज्जन पिछले पंद्रह वर्षों से रिटायरमेंट के बाद अपने धन की प्राप्ति हेतु मेरे दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं!जितना धन उन्होंने पंद्रह वर्षों में टैम्पो से मेरे दफ्तर के चक्कर लगाने में, जगह जगह अपनी समस्या के निराकरण के लिए आवेदन देने में , गर्मी में बीमार पड़कर अपना इलाज करने में और चप्पलें घिसने पर नयी चप्पलें खरीदने में खर्च किया, उतना अगर मुझ पर रख देते तो मैं कब की आगे बढ़ गयी होती!ये द्रष्टान्त मैंने इसलिए सुनाया ताकि भविष्य में कोई ऐसी गलती न करे!

कभी कभी मुझ पर संकट आती है जब " सूचना का अधिकार " टाइप के क़ानून बन जाते हैं!उस समय मेरे आका लोग थोड़े परेशान नज़र आते हैं!किन्तु कुछ ही दिनों में ये बुद्धिमान लोग इसका उपाय भी निकाल लेते हैं!तरह तरह के क़ानून, प्रक्रिया और आपत्ति निकालकर मुझे महीनों घुमाया जाता है!

जब तक बाबूराज है तब तक मैं इसी तरह दफ्तरों में लाल फीते में बंधी सजती रहूंगी!अगर इससे ज्यादा जानने की इच्छा है तो कृपया मेरे मालिक के पास आइये, एक चाय के साथ एक समोसा खिलाइए और उनकी ठंडी जेब को गर्म कीजिये!हर प्रकार की जानकारी मय समाधान के आपको उपलब्ध करा दी जायेगी!अच्छा तो अब मैं चलती हूँ...कहीं मेरे मालिक ने देख लिया की मैं फ़ोकट में अपने बारे में इतनी जानकारी दे रही हूँ तो मेरे लिए मुसीबत हो जायेगी... राम राम!

26 comments:

Arvind Mishra said...

Ek dhansoo vyang rachana magar ek bebas udasi de gaya..

अमिताभ मीत said...

Too good Pallavi !!

प्रवीण पाण्डेय said...

हा हा हा हा, इतनी परतें न खोलिये नहीं तो हँसी की बाढ़ आ जायेगी।

डा० अमर कुमार said...


"मैं धनाकर्षण बल के सिद्धांत पर कार्य करती हूँ!"

यही पँच लाइन है, इस व्यँग्य का ...
आनन्दित करने वाली पोस्ट !

डॉ टी एस दराल said...

बहुत ज़बर्ज़स्त व्यंग कसा है ।
कवि मन को तो कविता लिखने का मन करता है लेकिन क्या करें जुबान बंद रखनी पड़ती है ।

RAJESH PANDEY said...

Govt. offices are ill-reputed for that. This write-up seems not out of any irony; this is not even a basic innuendo but d pain of d writer against such a rotten system is d real undercurrent. Keep it up Pallavi; nice one.

Sorry i have't still learnt to use d Hindi link.

RAJESH PANDEY said...

Truly hilarious with tinctures of undeneath pain.

Anonymous said...

bahut accha

Abhishek Ojha said...

"धनाकर्षण बल का सिद्धांत" :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

धनाकर्षण बल तो मुद्रा के प्रचलन के पहले से विद्यमान है तब वस्तु भेंट से काम चलता था। आज भी उस के अवशेष देखे जा सकते हैं।

सुंदर व्यंग्य रचना!

मीनाक्षी said...

इस फाइल की आत्मकथा पढ़ कर कुछ फाइलों की व्यथा याद आ गई...जिन्हें टेबल पर रख कर ऊपर से तेज़ पंखा चला दिया जाता...जो टेबल पर रह पातीं उन्हें हाथों हाथ लिया जाता, ज़मीन पर गिरी फाइलें बेकार समझ ली जाती...

डॉ .अनुराग said...

सरकारी बाबू अपनी किस्म का प्राणी है जिसकी ईजाद अंग्रेजो ने की थी......ओर सच मानिये केवल यही एक प्राणी है जिसमे कोई म्यूटेशन नहीं हुआ......

SANDEEP PANWAR said...

मैं तो चौंक ही गया था कि कोई फ़ाइल कैसे बन सकता है अब जाकर माजरा समझ में आया है।

kumar zahid said...

धनाकर्षण बल के सिद्धांत पर कार्य करती हूँ!और मेरा ईंधन भी यही है!

सिद्धांत के मामले में कभी समझौता नहीं करती!मेरे लिए अमीर, गरीब, लाचार , अपंग सब बराबर हैं!बिना सेवा के मैं भी किसी की सेवा नहीं करती!


एक संतुलित और अर्थवान रचना
बधाइयां

विनोद कुमार पांडेय said...

बहुत खूब..बढ़िया लिखा है आपने..एक व्याग्यात्मक लहजे में पूरी रचना बहुत अच्छी बन पड़ी है.. एक सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें

दिगम्बर नासवा said...

फ़ाइल की गाथा ... बेहद लाजवाब लगी ... कितना सच ... यथार्थ लिखा है करारा व्यंग ...

Pawan Kumar said...

हम जिसे सरकारी बाबुओं की पोल खोल दी आपने..... मजेदार व्यंग्य. अच्छा व्यंग्य लिखना हमेशा चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, और यह कार्य आपने बखूबी निभाया है. उम्दा व्यंग्य !

sonia_shish said...

Recently In Vidisha Police Station -"Mujhhe to lagaa tha ki "YAADON KI BARAAT" film ki poori Shooting Karwane ke baad hi Passport Varification Ho Payega".
Lekin Bhalaa ho Dhan Devta ka.

sonia_shish said...

Itni Wonderful(?)Mehnat (Showing Different body language,Fidgeting fingers,Kal Aaanaa,Pehle ek certificate kam bataana ,agli bar doosra jab tak....) Agar riht direction me Police training ke samay karaayi jati to shayad aaj society kuchh aur behtar ho sakti thi.

pallavi trivedi said...

sonia-shish.... agar vidisha police station ki aisi koi bhi complaint hai to aap zarur mujhse aakar miliye.

sonia_shish said...

I have also faced / learned such situations while studying in Bangalore. My precious creer almost spoiled just because of such small things (sometimes just for the sake of a cigarate,gutka etc(i was tought not to support such people-later i came to know everything was connected from bottom to top).Now i have changed a little.I dont mind such small things,because ultimately U R the loser.)

daanish said...

सिद्धांत के मामले में कभी समझौता नहीं करती
और
धनाकर्षण बल के सिद्धांत पर कार्य करती हूँ...
व्यंग आलेख की शैली को इन "प्रतिबद्धताओं" से
नया प्रभाव मिला है ... !
फाईल बिम्ब से
आज के हालात का सटीक चित्रण किया है .
अभिवादन स्वीकारें .

Unknown said...

Dear Pallavi
We all r part of the system(Currpt)
Atleast all who comment on your blog should have driving licence without bribe(Risvat)then all these are true .............othrwise sabhi jhoothe hain

सागर said...

बहुत विविधता है आपके लेखन में... अच्छा है हम सबसे दो -चार होते रहते हैं...

आत्मकथा सुन्दर है, और सुन्दर हो सकती थी पर जल्दी में आपने समेट दिया.

पिछले दोनों पोस्ट भी पढ़े ... सत्तर के फूल वाले में जब ट्रक वाले ने यह लिखवाने का वजेह बताया उससे जुड़ नहीं सका... लेकिन पूरी विषय वस्तु नयी है. और पढने में अलग सा लगा.

इन सब का बहुत बहुत धन्यवाद.

pallavi trivedi said...

सागर... ये ओरिजिनल थोडा बड़ा लिखा है लेकिन ब्लॉग पर पोस्ट करने के हिसाब से काफी एडिट कर दिया था! मुझे लगता है ज्यादा लम्बी पोस्ट ब्लॉग पर कुछ बोझिल लगने लगती है...इसलिए!

गौतम राजऋषि said...

ha! ha!! good one!!!


फाइलों से अपना कम ही वास्ता पड़ता है, जब पड़ता है तो सोचने लगता हूँ कि बाबू लोगों की जिंदगी कितनी कष्टमय होती होगी| आफिस टाइम में पूरे वक्त टेबल पर बैठे रहना और मोटी-मोटी फाइलों को निबटाना....

टेबल पर फाइल रखने की जो ट्रे बनी होता हैं...अमूमन in out और pending का मजमून लिए| कुछ जगहों पर in की जगह धीरे चल pending की जगह आराम से और आउट की जगह तेज चल लिखा देखा था....
ये क्या सब लिखे जा रहा हूँ मैं कमेन्ट में न जाने...