आपकी इज्ज़त आपके कर्मों में बसी
आपने दान किया ..आपकी इज़्ज़त बढ़ी
आपने जग जीता ..आपकी इज़्ज़त बढ़ी
आपने आविष्कार किये ..आपकी इज़्ज़त बढ़ी
फिर मेरी इज़्ज़त आपने मेरी नाभि के नीचे क्यों बसाई ?
मेरे जग जीतने से मेरी इज़्ज़त नहीं बढ़ी
अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने से मुझे मान नहीं मिला
पर मेरे एक रात प्रेम करने से मेरी इज़्ज़त ख़त्म हो गयी
मुझ पर एक शैतान का हमला मेरी इज़्ज़त लूट गया
मैं हैरत में हूँ
मेरे एक ज़रूरी अंग को आपने कैसे मेरी इज्ज़त का निर्णायक बनाया ?
किसने आपको मेरी आबरू का ठेकेदार बनाया ?
अगर बनाया तो बनाया
आप बुद्धिहीन नहीं ..बहुत शातिर थे
मैं जान और समझ गयी हूँ आपके इस शातिराना खेल को
मुझे साज़िशन गुलाम बनाया गया है
अब मैं अपनी इज़्ज़त को अपनी जाँघों के बीच से निकालकर फेंकती हूँ
मेरा कौमार्य मेरी आज़ादी है ..न कि मेरी आबरू
मुझ पर एक हमला मुझे शर्मिन्दा नहीं करेगा अब
ना ही मेरी इज़्ज़त छीन सकेगा
मैं उठकर आपकी आँखों में डालकर ऑंखें
हिसाब लूंगी अपने ऊपर हुए हमले का
शर्मिन्दा होगा ये समाज और ये सरकार
शर्मिंदा होंगे आप
मैं गर्विता हूँ और रहूंगी
हज़ार बार हुए हमलों के बावजूद
3 comments:
बिल्कुल सही, यही सवाल मुझे भी बार-बार परेशान करता है। कुछ ऐसे ही भाव मैंने भी अपने एक लेख में व्यक्त किए हैं http://meetumathur.blogspot.in/2014/08/blog-post_16.html
गहरे क्षोभ ... असीम क्रोध भरी लेखनी ... पर कठोरतम सत्य की अभिव्यक्ति ... सलाम है इस बेबाक लेखनी को ...
bahut khub likhati hain...yun hi likhate rahiye
ashu
chaupal-ashu.blogspot.com
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