पंडित रामेश्वर शर्मा- शहर के एक स्कूल में शिक्षाकर्मी वर्ग -२ के पद पर कार्यरत मास्टर! स्कूल में सिलेबस कम और रामायण,महाभारत ज्यादा पढाते हैं,चूंकि उन्होने भी छुटपन से ही सिलेबस कम और रामायण ,नहाभारत ज्यादा पढा! जुगाड़ बैठ गयी सो नौकरी मिल गयी! घोर आस्तिक,कर्मकांडी,पूजन कीर्तन में मन रमाने वाले और संतान को ईश्वर का उपहार मानने वाले (ईश्वर के दिए ६ उपहार इनके घर में धमाचौकडी करते देखे जा सकते हैं!) ऐसे हैं पं. रामेश्वर शर्मा जी...
श्री द्वारिकाप्रसाद गुप्ता- शहर में कामचलाऊ प्रेक्टिस करने वाले एक वकील! साधारण सा मकान,साधारण सी पत्नी,साधारण से दो बच्चे,कुल मिलाकर सब कुछ साधारण! लेकिन एक बात बड़ी असाधारण, और वो है उनकी घोर नास्तिकता ! अगर कोई कहे कि मंदिर में हाथ जोड़ोगे या पांच जूते खाओगे तो तुरंत पूछेंगे 'कहाँ खाना है सिर पर या पीठ पर' ! ऐसे हैं श्री द्वारिकाप्रसाद जी !
तो हुआ यूं कि एक रोज़ पं. रामेश्वर को कहीं से द्वारिका प्रसाद जी कि घोर नास्तिकता की भनक लगी तो विचार बनाया कि चलकर वकील साहब की बुद्धि को शुद्ध किया जाए सो अपनी साइकल खड़खडाते पहुँच गए वकील साहब के घर! चुटिया पर हाथ फेरते घंटी बजाई,वकील साहब ने दरवाजा खोला! पंडित जी ने नमस्कार की मुद्रा बनाई! वकील साहब ने ऊपर से नीचे तक आँख फाड़ फाड़ कर देखा पर परिचय का कोई निशान न पा सके! पंडित जी ने अपना परिचय दिया,आने का प्रयोजन बताया! वकील साहब अन्दर से ऐसे प्रसन्न हुए कि होंठ तो होंठ ,मूंछें तक मुस्कुरा उठीं ! उन्होने तरस खाते हुए आगाह कर दिया कि हमारे विचार नहीं बदलेंगे पर आशय था कि तुम्हारे जैसे छतीस आये छत्तीस गए पर हमारे विचारों को खरोंच तक नहीं आई!पर पंडित जी भी अपनी बात पर अड़े थे सो भैया शास्त्रार्थ शुरू होता है -
पं.-इससे तो आप सहमत होंगे कि भगवान् राम जैसा कोई आदर्श पुरुष नहीं?
वकील सा.-भगवान्,फगवान तो मैं कहता नहीं,हाँ राम जैसे दुनिया में बहुत मिलते हैं!
पं.-राम का जीवन एक आदर्श जीवन है!
वकील सा.-अब मुंह न खुलवाओ हमारा,एक ही उदाहरण दिए देते हैं! सीता को जो बिना बात के घर से निकाला है न,अगर आज का ज़माना होता तो धरा ४९८(अ) में कब के अन्दर हो गए होते!' काहे का आदर्श, हुंह ' वकील साहब ने मुंह बिचकाया!
पंडित जी मुंह की खाकर थोडा तिलमिलाए,पर हिम्मत नहीं हारी!
पं.-चलो ठीक है,मत मानिए भगवान् राम को.हमारे तो करोडों देवता है अभी तो बहुत बचे हैं! सीता माता को तो पूजोगे?
वकील सा.- इससे अच्छा अपनी पत्नी को न पूजें जो हमारी गलतियों पर हमें खाने को दौड़ती है! सीता नासमझ थी,घर से आंसू बहाकर निकलने की बजाय पति की बुद्धि ठीक की होती,बच्चों को उनका अधिकार दिलाया होता,भरण पोषण भत्ता लिया होता तो कुछ सोचा भी जा सकता था!इससे अच्छी तो हमारी क्लाइंट्स हैं जो पति के खिलाफ मुकदमा लड़ने हमारे पास आती है.कम से कम अन्याय के खिलाफ आवाज़ तो उठाती है!
पंडित जी का चेहरा जो पहले से ही बदरंगा था,और बदरंग होने लगा, पर डटे रहे !
पं.-अच्छा छोडो रामायण को,महाभारत के पात्र ज्यादा वैरायटी लिए हुए है! उनमे से आपके कई आदर्श मिल जायेंगे!
वकील सा.-कोशिश कर देखो!
पं.-कृष्ण भगवान् को तो मानोगे,जिन्होंने हमेशा परिस्थिति देखकर काम किया और सफल रहे! वे सच्चे मायनों में आदर्श है!
वकील सा.-इस गुण को विद्वान् कूटनीति कहते है ! अगर कृष्ण को पूजें तो बिस्मार्क और नेहरू जी को क्यों न पूजें? इनकी कूटनीति भी मशहूर है!
पं. (जोर से)- गुरु द्रोणाचार्य समस्त गुरुओं में उत्तम है!
वकील सा.-काहे के उत्तम जी, इनसे अच्छे तो हमारे घासीराम मास्साब है ,बच्चों से फीस लेते है तो बदले में कम से कम एक घंटा पढाते तो है! तुम्हारे द्रोणाचार्य ने तो गरीब एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में ले लिया ,वो भी बिना कुछ सिखाये,पढाये! और दूसरी बात,वहाँ भी अगर अकाल से काम लिया होता और एकलव्य को पटाकर टीम में शामिल कर लिया होता तो टीम मजबूत हो जाती! आये बड़े द्रोणाचार्य को उत्तम कहने वाले !
पं.-और गुरु परशुराम...
वकील सा. (बीच से ही बात को लपकते हुए) - अरे,जातिवाद का श्रेय तो तुम्हारे परशुराम को ही जाता है! अपने विद्यालय की सारी सीट ब्राह्मणों के लिए आरक्षित कर दीं ! तुम्हारे ही होते होंगे ऐसे आदर्श,हमारे नहीं होते!
पंडित जी खिसिया खिसिया कर ढेर हो रहे थे,वकील साहब के तर्कों के आगे उनके सारे वार खाली जा रहे थे! पूरी एकाग्रता से सारे देवताओं का स्मरण कर उन्होने एक बार फिर जोर मारा ..
पं.- अच्छा,दानवीर कर्ण तो प्रत्येक गुणों से परिपूर्ण थे! अब कहो,क्या कहना है?
वकील सा.- हा हा,इमोशनल फ़ूल था कर्ण !ऐसी सीधाई भी क्या काम की कि अकल का भट्टा ही बिठा दे! जो लोग दिमाग को ताक पर रखकर केवल दिल से काम लेते है,वो मूर्खों के ही आदर्श हो सकते है!कर्ण से अच्छा आदर्श तो हमारे मोहल्ले का मनसा लुहार है ,जिसे बेवकूफ बनाकर उसी के घरवालों ने सारी ज़मीन अपने नाम करा ली और उसने ख़ुशी ख़ुशी कर भी दी! अब बाहर सड़क पर भीख मांगता मिल जायेगा,घर ले जाकर पूजा कर लेना उसकी!
पंडित जी पूर्ण रूप से परास्त हो चुके थे,वकील साहब के नथुने फ़ूल फूलकर विजय का एलान कर रहे थे! पंडित जी बेचारे क्या कहते, और कोई देवता उन्हें याद ही नहीं आये!आते भी कैसे ,बचपन से केवल रामायण,महाभारत ही पढी थी,वो भी १००-१०० पेज की कहानी की शकल में!अगर वही ढंग से पढी होती तो शायद वकील सा. के तर्कों के कुछ सटीक जवाब दे पाते ! पंडित जी धोती संभालते उठ खडे हुए! इससे पहले कि उनके खुद के विचार बदलते,उन्होने कृष्ण मुख करना उचित समझा! वो चले पंडित जी साइकल खड़खडाते ,अपनी चुटिया संभालते!
श्री द्वारिकाप्रसाद गुप्ता- शहर में कामचलाऊ प्रेक्टिस करने वाले एक वकील! साधारण सा मकान,साधारण सी पत्नी,साधारण से दो बच्चे,कुल मिलाकर सब कुछ साधारण! लेकिन एक बात बड़ी असाधारण, और वो है उनकी घोर नास्तिकता ! अगर कोई कहे कि मंदिर में हाथ जोड़ोगे या पांच जूते खाओगे तो तुरंत पूछेंगे 'कहाँ खाना है सिर पर या पीठ पर' ! ऐसे हैं श्री द्वारिकाप्रसाद जी !
तो हुआ यूं कि एक रोज़ पं. रामेश्वर को कहीं से द्वारिका प्रसाद जी कि घोर नास्तिकता की भनक लगी तो विचार बनाया कि चलकर वकील साहब की बुद्धि को शुद्ध किया जाए सो अपनी साइकल खड़खडाते पहुँच गए वकील साहब के घर! चुटिया पर हाथ फेरते घंटी बजाई,वकील साहब ने दरवाजा खोला! पंडित जी ने नमस्कार की मुद्रा बनाई! वकील साहब ने ऊपर से नीचे तक आँख फाड़ फाड़ कर देखा पर परिचय का कोई निशान न पा सके! पंडित जी ने अपना परिचय दिया,आने का प्रयोजन बताया! वकील साहब अन्दर से ऐसे प्रसन्न हुए कि होंठ तो होंठ ,मूंछें तक मुस्कुरा उठीं ! उन्होने तरस खाते हुए आगाह कर दिया कि हमारे विचार नहीं बदलेंगे पर आशय था कि तुम्हारे जैसे छतीस आये छत्तीस गए पर हमारे विचारों को खरोंच तक नहीं आई!पर पंडित जी भी अपनी बात पर अड़े थे सो भैया शास्त्रार्थ शुरू होता है -
पं.-इससे तो आप सहमत होंगे कि भगवान् राम जैसा कोई आदर्श पुरुष नहीं?
वकील सा.-भगवान्,फगवान तो मैं कहता नहीं,हाँ राम जैसे दुनिया में बहुत मिलते हैं!
पं.-राम का जीवन एक आदर्श जीवन है!
वकील सा.-अब मुंह न खुलवाओ हमारा,एक ही उदाहरण दिए देते हैं! सीता को जो बिना बात के घर से निकाला है न,अगर आज का ज़माना होता तो धरा ४९८(अ) में कब के अन्दर हो गए होते!' काहे का आदर्श, हुंह ' वकील साहब ने मुंह बिचकाया!
पंडित जी मुंह की खाकर थोडा तिलमिलाए,पर हिम्मत नहीं हारी!
पं.-चलो ठीक है,मत मानिए भगवान् राम को.हमारे तो करोडों देवता है अभी तो बहुत बचे हैं! सीता माता को तो पूजोगे?
वकील सा.- इससे अच्छा अपनी पत्नी को न पूजें जो हमारी गलतियों पर हमें खाने को दौड़ती है! सीता नासमझ थी,घर से आंसू बहाकर निकलने की बजाय पति की बुद्धि ठीक की होती,बच्चों को उनका अधिकार दिलाया होता,भरण पोषण भत्ता लिया होता तो कुछ सोचा भी जा सकता था!इससे अच्छी तो हमारी क्लाइंट्स हैं जो पति के खिलाफ मुकदमा लड़ने हमारे पास आती है.कम से कम अन्याय के खिलाफ आवाज़ तो उठाती है!
पंडित जी का चेहरा जो पहले से ही बदरंगा था,और बदरंग होने लगा, पर डटे रहे !
पं.-अच्छा छोडो रामायण को,महाभारत के पात्र ज्यादा वैरायटी लिए हुए है! उनमे से आपके कई आदर्श मिल जायेंगे!
वकील सा.-कोशिश कर देखो!
पं.-कृष्ण भगवान् को तो मानोगे,जिन्होंने हमेशा परिस्थिति देखकर काम किया और सफल रहे! वे सच्चे मायनों में आदर्श है!
वकील सा.-इस गुण को विद्वान् कूटनीति कहते है ! अगर कृष्ण को पूजें तो बिस्मार्क और नेहरू जी को क्यों न पूजें? इनकी कूटनीति भी मशहूर है!
पं. (जोर से)- गुरु द्रोणाचार्य समस्त गुरुओं में उत्तम है!
वकील सा.-काहे के उत्तम जी, इनसे अच्छे तो हमारे घासीराम मास्साब है ,बच्चों से फीस लेते है तो बदले में कम से कम एक घंटा पढाते तो है! तुम्हारे द्रोणाचार्य ने तो गरीब एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में ले लिया ,वो भी बिना कुछ सिखाये,पढाये! और दूसरी बात,वहाँ भी अगर अकाल से काम लिया होता और एकलव्य को पटाकर टीम में शामिल कर लिया होता तो टीम मजबूत हो जाती! आये बड़े द्रोणाचार्य को उत्तम कहने वाले !
पं.-और गुरु परशुराम...
वकील सा. (बीच से ही बात को लपकते हुए) - अरे,जातिवाद का श्रेय तो तुम्हारे परशुराम को ही जाता है! अपने विद्यालय की सारी सीट ब्राह्मणों के लिए आरक्षित कर दीं ! तुम्हारे ही होते होंगे ऐसे आदर्श,हमारे नहीं होते!
पंडित जी खिसिया खिसिया कर ढेर हो रहे थे,वकील साहब के तर्कों के आगे उनके सारे वार खाली जा रहे थे! पूरी एकाग्रता से सारे देवताओं का स्मरण कर उन्होने एक बार फिर जोर मारा ..
पं.- अच्छा,दानवीर कर्ण तो प्रत्येक गुणों से परिपूर्ण थे! अब कहो,क्या कहना है?
वकील सा.- हा हा,इमोशनल फ़ूल था कर्ण !ऐसी सीधाई भी क्या काम की कि अकल का भट्टा ही बिठा दे! जो लोग दिमाग को ताक पर रखकर केवल दिल से काम लेते है,वो मूर्खों के ही आदर्श हो सकते है!कर्ण से अच्छा आदर्श तो हमारे मोहल्ले का मनसा लुहार है ,जिसे बेवकूफ बनाकर उसी के घरवालों ने सारी ज़मीन अपने नाम करा ली और उसने ख़ुशी ख़ुशी कर भी दी! अब बाहर सड़क पर भीख मांगता मिल जायेगा,घर ले जाकर पूजा कर लेना उसकी!
पंडित जी पूर्ण रूप से परास्त हो चुके थे,वकील साहब के नथुने फ़ूल फूलकर विजय का एलान कर रहे थे! पंडित जी बेचारे क्या कहते, और कोई देवता उन्हें याद ही नहीं आये!आते भी कैसे ,बचपन से केवल रामायण,महाभारत ही पढी थी,वो भी १००-१०० पेज की कहानी की शकल में!अगर वही ढंग से पढी होती तो शायद वकील सा. के तर्कों के कुछ सटीक जवाब दे पाते ! पंडित जी धोती संभालते उठ खडे हुए! इससे पहले कि उनके खुद के विचार बदलते,उन्होने कृष्ण मुख करना उचित समझा! वो चले पंडित जी साइकल खड़खडाते ,अपनी चुटिया संभालते!
46 comments:
acchi kahani hai.aap vyangya bahut accha karti hain.
जी व्यंग के रूप मैं बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है .
आदिशंकराचार्य भी होते तो द्वारिकाप्रसाद गुप्ता जी से न जीत पाते! रामेश्वर शर्मा की क्या बिसात! :-)
पल्लवी जी! आपने तो गुदगुदा दिया...
एकदम मुस्कुराता सा लेख...
(ईश्वर के दिए ६ उपहार इनके घर में धमाचौकडी करते देखे जा सकते हैं!)
ये पंक्ति बहुत अच्छी लगीं...
जारी रहे...
अच्छा व्यंग्य.
ब्लॉग आर्काइव को दैनिक के बजाए साप्ताहिक या मासिक रखें तो बेहतर. आर्काइव सेटिंग में style में चुनें hierarchy तथा विकल्प में show post title चुनें. इससे आपके पुराने पोस्टों को विषय वार पढ़ने में पाठकों को सुविधा होगी.
बहुत खूब.
गुप्ता जी ठहरे वकील...बृहस्पति और शुक्राचार्य, दोनों मिल जाएँ तो भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे. गुप्ता जी दोनों को पटक देंगे. और अगर उन्हें लगे कि मामला कुछ जम नहीं रहा या फिर वे उस दिन आउट ऑफ़ फार्म हैं तो तारिख ले लेंगे....लेकिन हराएंगे ज़रूर.
bahut sunder likha hai....maja aa gya
bahut acha likha hai pallavi ji aapne. bahut accha laga padh ke.vyangya ke dvara achi prastuti di hai aap ne. badahi
वकिल तो तर्क प्रवीण लग रहे है यदि पं जी भी तर्क मे चतुर होते तो शास्त्रार्थ लंबा चलता और परिणाम यह निकलता कि वो एक दुसरे से अधिक प्रभावित हो जाते और पंडित जी नास्तीक हो जाते और वकिल महोदय आस्तिक!! बस पाला बदल जाता!
अच्छा है
बेचारे पंडीजी क्या करते भला... तर्क में कच्चे थे थोड़े और वकील साहब ठहरे माहिर आदमी !
व्यंग लिखना आसन नहीं होता क्यूँ की इसमें हास्य के साथ चुटकी काटना भी जरूरी होता है...आप ने दोनों काम बखूबी निभाए हैं...श्रेष्ट व्यंग का नमूना है आप की ये पोस्ट....बधाई...गुप्ता जी कहीं मिलें तो मेरी राम राम जरूर कहियेगा उनसे...
नीरज
"अगर कोई कहे कि मंदिर में हाथ जोड़ोगे या पांच जूते खाओगे
तो तुरंत पूछेंगे 'कहाँ खाना है सिर पर या पीठ पर' ! "
बहुत लाजवाब ! मजा आगया ! धन्यवाद !
सुंदर लिखा है आपने :-)
हम भी ऐसे ही तर्क दिया करतें हैं कभी लिखूंगी इसके बारे में ..
bahut achhe ji.. ser ko bhi sawa sher mil hi jate hai.. waise dhai sher bhi bahut hai.. baazar mein..
सुंदर लिखा है आपने :-)
बहुत अच्छा शास्त्रार्थ!
उम्मीद है पंडित जी रास्ते में साइकिल से किसी से टकराये नही होंगे ...वैसे मुझे व्यंग्य से ज्यादा इसमे बदलते हालात की तस्वीर दिखायी दी.....
एक ओर बात ..नेहरू को अच्छे कूटनीतिग मानने वाले कम लोग है इस देश में ..(मै भी उनमे से एक हूँ )
akhir pandit ji ko vakeel ne achchi khasi pothi padha di. bahut sundar .joradar vyangy anand aa gaya .
वकीलों से तर्कों में कौन जीता है मैडम जी? आपका तो पाला पड़ता रहता होगा.
वकील साहब का क्या है-धंधा ही तर्क कुतर्क का है. पण्डित जी भी ऐसी दिशा काहे पकड़ लिए कि कृष्ण मुख कर के लौटना पड़े. बहुत बेहतरीन लिखा है. वाह, बधाई!!
ये तो आपने एकतरफ़ा मुकाबला करा दिया जी। ये अच्छी बात नहीं है।
बहुत अच्छा। लाजवाब। मजा आ गया।
वकील साहिब जी ने तो कमाल ही कर दिया, उस से बडा कमाल आप की लेखनी ने कर दिया, अरे हंस हंस के पेट दुखने लगा हे... बहुत ही सुन्दर.
धन्यवाद
आप ने यह आलेख कुछ बरस पहले लिख दिया होता तो वकील साहब अब तक असाधारण हो चुके होते। खैर देर आयद दुरुस्त आयद। अब ही सही। कुछ बरस बाद देखना श्री द्वारका प्रसाद गुप्ता को डी पी गुप्त न हो जाएँ तो नाम बदल देना जी।
vakeel sahab ke liye kaliyugi bhagwaan ki juroorat hai :)
आनंद आया। अच्छा व्यंग्य था और शैली सहज..
जमाए रहिए :)
बहुत ही अच्छा लिखा है ........ बहुत ही अच्छा लगा......पर एक बात गड़बड़ लगी ......आपने पंडितजी को कमजोर बना दिया......... कमजोर तो वे होते नहीं हैं।
गजब का शास्त्रार्थ रहा। काश एक दो कड़ी और पड़ने को मिलती। बहुज मजेदार हास-व्यंग्य।
(वैसे वकील साहब की कुछ बातें खारिज नहीं की जा सकती।)
द्वारिका प्रसाद गुप्ता जी की जै हो। आपने जबर्दस्त खोज की है,गुप्ता जी जैसे हीरे को आप ही परख सकती है। बहुत बढिया लिखा आपने बधाई आपको
.
बहुत खूब पल्लवी, आनन्दम आनन्दम...
मेरी तो इसपर एक पूरी ऋंखला ही देने की योजना थी,
तुमसे प्रेरणा लेकर जा रहा हूँ, तो दूँगा भी !
प्रतीक्षारत हूँ, अभी मेरा लिंग एवं गुटनिर्धारण लंबित है !
मैं ज्ञानदत्त पांडेय जी से सहमत हूं लेकिन आपने गुदगुदाया खूब।
रोचक शास्त्रार्थ, बेचारे पंडित जी।
acchaa vayang.. andar tak gudguda diya..
:-)
bahut acha pallavi ji.." होंठ तो होंठ ,मूंछें तक मुस्कुरा उठीं " bahut mazaedar.. kaise aayi hogi yeh line aapke dimaag mein..:-) kya kya soch leti hai aap bhi :-)
pallavi ji aapko paheli baar para ...sunder vyang hai....aur usse bhi sunder abhivyakti...
best ishes
व्यंग्य विधा की शैली , अभिव्यक्ति में शानदार. परिपक्वता साफ नजर आती है.. "चुटिया पर हाथ फेरते घंटी बजाई,वकील साहब ने दरवाजा खोला! पंडित जी ने नमस्कार की मुद्रा बनाई! वकील साहब ने ऊपर से नीचे तक आँख फाड़ फाड़ कर देखा पर परिचय का कोई निशान न पा सके!" अच्छा लिखते रहें. विषयवस्तु और शास्त्रार्थ से सहमत और असहमत अवश्य हुआ जा सकता है. वस्तुतः दो समान बुद्धिस्तर के लोगों के बीच शास्त्रार्थ का आनंद कुछ और ही होता. हालाँकि आपने इन पक्तियों से " बचपन से केवल रामायण,महाभारत ही पढी थी,वो भी १००-१०० पेज की कहानी की शकल में!अगर वही ढंग से पढी होती तो शायद वकील सा. के तर्कों के कुछ सटीक जवाब दे पाते !" पंडित रामेश्वर शर्मा का बचाव किया है.
अपने चिर परिचित अंदाज में शब्दों से जादू जगाती आप की एक और विलक्षण रचना...
achchi post
achchi rachna
व्यंग्य की शैली और वर्णन प्रभावकारी और सुंदर है. क्षमा कीजियेगा पर वाद-विवाद को और प्रभावशाली बनाया जा सकता था. वैसे ये हमारा मत है.
bahut hi khoobsurat vyang, pahli bar kisi blog ko padhkar hasi ayee hai,kyoki mai blog par hamesha gambhir kavitaye hi padha karta tha.
sundar vyang k liyedhanyabad.
Bhai wah Pallavi g
dhansu post....
karari...
vicharneeya...
aapko badhai..
मित्रwar
हरियाणवी टोटके किस्से और कविताएं
haryanaexpress.blogspot.com
साइट पर भी उपलब्ध है
समय निकाल कर is par bhi आईयेगा
सुस्वागतम्
बहुत अच्छा द्रष्टान्त दिया है आपने तथाकथित धार्मिकों को, आजके समय में भी यही पंडित और मानसिकता हर मोहल्ले में बिखरी है ! कौन समझाए धर्म का अर्थ इनको ....
अनपढ़ वामन पंडित होता, शिक्षित अछूत को हे मान ,
इस महा ज्ञान को धर्म मान क्यों लोग मनाते दीवाली !
पल्लवी जी, लेख के लिए साधुवाद।
IPS सरीखी परीक्षा में सफल होना एवं उसके बाद हवा में ना उड़ते हुए, धरातल से जुड़े रहना, हरी कृपा से ही सम्भव है।
प्रभु विमल बुद्धि बनाये रखें, यही प्रार्थना है।
अन्य कहीं एक "व्यंग" का प्रयास किया है - आस्तिक एवं नास्तिक के शास्त्रार्थ में जिसमे पंडित जी नहीं हारते, अपितु, मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम एवं उनके आचरण का उपहास किया गया है।
आपकी बुद्धि का दोष हो सकता की ब्राह्मिण कुल में जन्म लेकर भी आप में प्रभु के प्रति श्रद्धा भावः विकसित नहीं हुआ। आप अपने निजी जीवन में क्या करें, यह आपका चुनाव है, किंतु आपको अन्य लोगों की धार्मिक भावनायों को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं है।
आप जिस पद पर हैं, लेख उसकी मर्यादा के अनुरूप नहीं है.
भरत
rachana achchhi hai...par iska aadha shreya Khhattar Kaka ko jata hai jinhone isi mudde par lamba vyanga sangrah likha hai...
ummmeed hai aap prerana "shroton" ka bhi ullekh post me karengi...
:-)
Not Bad, carry on.
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