Monday, January 5, 2009

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें.....


मैं न्यू मार्केट जाती हूँ..गाडी से उतरने लगती हूँ इतने में मेरा मोबाइल बजता है! मैं नहीं उठाती, दो बार पूरी रिंग बज जाती है! तीसरी बार मैं उठाकर बात करती हूँ....अभी तक पार्किंग में ही खड़ी हूँ!बात करने के बाद आगे बढ़ने लगती हूँ इतने में देखती हूँ की एक छोटा बच्चा चेहरे पर मुस्कराहट लिए मेरी ओर देख रहा है! शायद यहीं कुछ काम करता होगा....उसके मैले फटे कपडे देखकर मैं अंदाजा लगाती हूँ! मैं आँखें उचका कर पूछती हूँ " क्या चाहिए? आइसक्रीम खायेगा?" बच्चा थोडा बेतकल्लुफ होकर झिझकते हुए कहता है " एक बार मोबाइल में गाना सुनाओगी?" " कौन सा गाना?" बच्चा करीब आकर कहता है " अभी जो बज रहा था, पल पल पल हर पल, मुझे बहुत पसंद है!" ओह ये मेरे मोबाइल की रिंग टोन के बारे में बात कर रहा है! मैं दो बार उसे गाना सुनाती हूँ.....वो बहुत खुश है! गाना सुनकर मुझे बाय
करके वो निकल जाता है!

मैं मार्केट में खरीदारी करते हुए भी सोच रही हूँ कि ख़ुशी बड़ी बड़ी चीज़ों कि मोहताज नहीं! एक गाना सुनकर वो बच्चा इतना खुश हो गया! शायद जिंदगी से हमें बहुत ज्यादा नहीं चाहिए होता है...वो तो हर कदम पर हमें गले लगाना चाहती है! हम ही उससे संतुष्ट नहीं होते जो वो हमें देती है!

दूसरी बात जो साथ साथ साथ मेरे दिमाग में चल रही है वो ये कि जिंदगी खुशियाँ बांटने का दूसरा नाम है! दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! और जहां तक हो सके ये मौका हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए!

अभी कुछ दिन पहले ही मैं पुलिस कर्मचारियों को स्ट्रेस मैनेजमेंट पढ़ा रही थी! मैंने उनसे पूछा की वे बताएं की उन्होंने कोई नेक काम पिछली बार कब किया था? १० मिनिट तक सोचने के बाद केवल दो हाथ उठे जिनमे से एक ने पच्चीस साल पहले भोपाल गैस काण्ड के वक्त किसी बूढे आदमी की मदद की थी और दुसरे ने सन २००० में एक विधायक की जान बचाई थी!
कितने हैरत की बात है न हमें कोई अच्छा काम किये हुए इतना वक्त बीत जाता है की हमें याद ही नहीं आता!

और दर असल हम सोचकर कोई अच्छा काम नहीं करते वो तो बस हमसे हो जाता है! मैंने शायद ही कभी किसी सुबह उठकर अपनी टू-डू लिस्ट में कोई नेक काम करना शामिल किया होगा! कई बार देखती हूँ बड़े बड़े अधिकारियों के छोटे छोटे बच्चे अपने से दोगुनी तिगुनी उम्र के अर्दलियों और ड्रायवरों को उनके नाम से बुलाते हैं....कितने कचोटता होगा उन्हें? उनके पढ़े लिखे माँ बाप जो सामाजिक कामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अखबारों में शान से फोटो छपवाते हैं, क्यों कभी नहीं सोचते कि उनके बच्चे अगर उनके मातहत कर्मचारियों को अगर भैया, दादा कहकर पुकारेंगे तो अपने पढ़े लिखे होने का ही सबूत देंगे और सबसे बड़ी बात किसी के आत्म सम्मान को बरकरार भी रखेंगे! बिना एक भी पैसा खर्च किये सिर्फ अपने व्यवहार से भी किसी को ख़ुशी दी जा सकती है!
जो माँ बाप दुनिया के भूगोल, इतिहास, विज्ञान के बारे में बच्चों को बड़ी बड़ी बातें सिखाना चाहते हैं...वे इंसानियत का पाठ पढाना क्यों भूल जाते हैं! कई बार लगता है जैसे अमीरी के साइड इफेक्ट के रूप में गुरूर और अहम् अपने आप चला आता है!

हर साल नए साल पर सोचती थी ...इस साल कुछ नया करुँगी, कोई नयी जगह देखूंगी या कोई अच्छी आदत डालूंगी पर इस साल सोचा है अगर पिछले साल की तुलना में जरा सा भी बेहतर इंसान बन पायी तो खुद को खुश किस्मत समझूंगी! निदा फाजली की ये लाइनें लगातार जेहन में चल रही है...
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए.....

59 comments:

श्रुति अग्रवाल said...

बेहद खूबसूरत ख्याल। रोज यूँ ही कुछ न कुछ करते रहें....आईने में अपना अक्स निहारना आसान हो जाएगा। बच्चों को हँसाकर ....हमारे अपने चेहरे पर मुस्कान आती है।

Abhishek Ojha said...

ऐसी छोटी-छोटी बातें जीतनी खुशियाँ देती हैं उनके लिए बड़ी चीजों की जरुरत नहीं... सच में ख़ुशी बड़ी बड़ी चीज़ों कि मोहताज नहीं!

रंजू भाटिया said...

यूँ ही एक मुस्कराहट किसी को दे सके इस से बेहतर बात और क्या हो सकती है ..बढ़िया लिखा आपने

Dr Parveen Chopra said...

वाह,जी , वाह---कितना खूब लिखा है। और उस बच्चे को जो आपने रिंग-टोन दो बार सुना दीं----यह सब बहुत ही अच्छा लगा।
बार बार ध्यान उस बात की तरफ़ ही जा रहा है कि पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय...
और हां, यह जो तितली को न उड़ाने वाली बात भी मैंने पहली बात सुनी है ---बेहद भावुक कोमल भावनायें कवि ने हमें दी हैं।
और रही बात, अफसरों के बच्चों द्वारा अपने माता पिता के मातहतों को नाम से बुलाया जाना ---- आप के विचार बेहद सम्मानीय हैं----काश! बच्चों के संस्कारों की तरफ़ भी ये लोग ध्यान दें ।
आप की पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी --दो-चार दिन पहले किसी दूसरे ब्लाग पर आप के बारे में एक पूरी पोस्ट देख कर जिस में आप के पहली पोस्टिंग की बातें कही गई थीं.....पढ़ कर बहुत अच्छा लगा था।
नववर्ष की बहुत बहुत शुभकामनायें -----लेटलतीफ़ी के लिए माफ़ी।
आप जैसी सोच रखने वालों के ऊपर ही यह देश टिका हुआ है --- I really mean what i am saying !!
God bless you !!

Unknown said...

अच्छा लेख है. यह परेशानी सब की है. बहुत लोग कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर करते नहीं या कर नहीं पाते. अच्छा करने के चक्कर में रहना और न करना, इस से बेहतर हैं कि हम यह बुरा न करने की कोशिश करें. अगर सफल हो गए तो यही एक अच्छा काम होगा.

स्वाति said...

''दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! ''

वाह पल्लवी जी , कितनी बड़ी और सही बात आपने अत्यन्त सरल शब्दों में अत्यन्त आकर्षक ढंग से व्यक्त कर दी है . मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ , अक्सर देखती हूँ ऑफिस में भी लोग अपने से छोटी पोस्ट के बड़ी उमर के व्यक्ति को भी खड़ा नाम ले कर पुकारते है , क्या उनके नाम के आगे सम्मानजनक संबोधन लगाने से वे छोटे हो जायेंगे .
इस बार काफी दिनों तक आप ब्लॉग जगत से दूर रही , आपकी नई पोस्ट का बेकरारी से इन्तजार था ...

"अर्श" said...

बहोत ही बढ़िया लिख है बहोत खूब लिखा है आपने वाकई खुशियाँ बाटने का दूसरा नाम ज़िन्दगी है ... बहोत ही उम्दा सोंच ढेरो बधाई कुबूल करें...


अर्श

कुश said...

बच्चा था इसलिए आपने सुना दी.. यही अगर मैं कहता तो आप यू ईडियट कहके मुझे भगा देती..

जोक्स अपार्ट... बहुत ही सुंदर भावना है.. दूसरो को भी प्रेरणा देती है.. मैने तो ले ली..

Vinay said...

मंत्र मुग्ध कर दिया ऐसा लेख लिखकर

---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम

mehek said...

bahut marmik lekh raha,hame bhi yaad nahi humne kab kisiko hasya tha.koshish karenge.

Unknown said...

बहुत बढ़िया ...सही में किसी को चोटी चोटी खुसी देकर हम वास्तव में अपने आपको खुशी देते हैं.... बहुत सही लिखा है

सुशील छौक्कर said...

सबसे पहले पोस्ट की बात। ऐसे वाक्या मेरे साथ बहुत घटे हैं। पर ऐसा नही घटा कि कोई गाने सुनने को बोले। यानिकी खाने और पैसे माँगने के अलावा कुछ और(ऐसा)माँगे। सच कुछ अहसास अनमोल होते। और हाँ दूसरी बात कल ऐसे अपने ब्लोग को देख रहा था तो देखा कि आप और जितेन्द्र जी ने एक भी पोस्ट और कमेंट नही पिछले एक महीने से। क्या बात? तो पहले जितेन्द्र जी को मेल किया और आपको मेल पता लिया आपके ब्लोग से। मेल लिख भी डाली पर फिर पता नहीं एक झिझक मह्सूस हुई। और आपको मेल नहीं किया। अब शाम को आकर अपना ब्लोग देखा तो आपकी पोस्ट लगी हुई थी। खैर नए साल की शुरुआत अच्छी पोस्ट से हुई। बच्चों को खुशी देकर जो सुकून मिलता हैं वो किसी और काम नही मिलता।

डा० अमर कुमार said...


आह्ः कितना सुखद रहा इतने दिनों बाद तुमको पढ़ना..
और, लेखन में शनैः शनैः आती हुई परिपक्वता की जीवंत मिसाल दे रही है, तू पल्लवी !

Puja Upadhyay said...

गली में आज चाँद निकला...कहाँ थी इतने दिनों से, हम आते थे और वही पन्ना देख मायूस हो जाते थे. नए साल में आप आ ही गई...चलिए नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं...ये नए साल की पोस्ट कई रेसोलुशन्स से बेहतर है. बिल्कुल सही कहा है आपने, खुशी छोटी चीज़ों में भी मिल जाती है, बस उसे ढूँढने की जरूरत है.

Anonymous said...

दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है!

uprokt pantyo ne mujhe comment less kar diya hai.

--------------------------"VISHAL"

प्रवीण त्रिवेदी said...

बच्चों को हँसाकर ....हमारे अपने चेहरे पर मुस्कान आती है।आपकी संवेदना की तारीफ करना चाहूँगा.........पर यह पद और प्रतिष्ठा की होड़ ?????आदमी को आदमी कहाँ रहने देती है ????

वैसे मोबाइल की चाहत के लिए कितने किशोर और नवजवान अपराध की दुनिया में जा रहे है ...... वह भी आपके इस उदाहरण से समझा जा सकता है !!!

और अब चलिए !! मेरी मदद करने .....

P.N. Subramanian said...

खुशी तो एक मानसिक स्थिति है जिसका निर्माण हम स्वयं कर सकते हैं.आपके उत्कृष्ट लेखन से बड़ी खुशी हुई. "अमीरी के साइड इफेक्ट के रूप में गुरूर और अहम् अपने आप चला आता है!" यह बहुत हद तक सही है. आभार.

रश्मि प्रभा... said...

आपकी रचना यानि आपकी सोच हमेशा मुझे प्रभावित करती है
बहुत सही कहा

Manish Kumar said...

Nek Khyal hain aapke. Ye choti choti khusiyan hi jeevan ki vastavik poonji hain.

मोहन वशिष्‍ठ said...

बहुत ही अच्‍छा ख्‍याल अच्‍छा लिखा आपने

दिनेशराय द्विवेदी said...

खुशियाँ बाँटना दुनिया का सब से लाभकारी सौदा है। कभी कर के देखिए। आप की झोली जितनी खाली होगी उस से अधिक भरती दिखाई देगी।

!!अक्षय-मन!! said...

किसी दुसरे की खुशी में अपनी खुशी को देखना बहुत बढ़िया है......
लेकिन इस खुशी एहेसास तभी होगा जब हम ऐसा करेंगे आपमें सही बात कही बहुत अच्छी प्रेरणा मिली है मुझे और आशा करता हूं सभी को...
ये खुशी जीवनभर के लिए कैद हो जाती अपनी यादों में...
मैं जनता हूं कितना सुकून मिलता है.....


अक्षय-मन

नीरज गोस्वामी said...

वाह पल्लवी जी वाह...दिल जीत लिया आप की पोस्ट ने...आप सा इंसान आजकल के युग में मिलता कहाँ है अगर हम में से कुछ की सोच भी आपसी हो जाए तो दुनिया की शक्ल ही बदल जाए...नमन आपको...दिल से...
नीरज

Nitish Raj said...

मैंने इसके टाइटल से ही इस पोस्ट को खोला और एक बार जो पढ़ना शुरू किया तो खत्म होने तक नहीं रुका बहुत अच्छी सोच के साथ लिखी एक नेक पोस्ट। पूरा पढ़ने के बाद जब सोचा कि किसने लिखा है तो नजर घुमाई लेकिन तब तक पोस्ट ए कमेंट का बॉक्स खुल चुका था तब स्वाति जी के कमेंट में यूं ही नजर पड़ गई तब पता चला की ये पल्लवी जी हैं। बहुत खूब. धन्यवाद।

Smart Indian said...

यह आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा. इन्हीं छोटे-छोटे प्रयासों से, धीरे-धीरे ही सही, समाज में परिवर्तन आयेगा.

चर्चाकार said...

बहुत ही भावुक करने वाली पोस्ट , एक ताजा ओस की बूंद के माफिक । यह आपने ब्लिकुल सोलहा आने सच्च कही कि हम जब किसी की मदद करते हैं तो उस पर को अह्सान नही करते , हम वो इस लिए करते है क्योंकि उसमे हमे खुशी मिलती है । दर असल हम उस व्यक्ति के लिए नही बल्कि अपनी खुशी के लिए वो सब करते हैं।
हाँ जहाँ तक नाम लेकर बुलाने वाली बात है वो शायद इस बात पर निर्भर करती है की हम कौन से टाइम और स्पेस में हैं । कुछ जगाहों पर अपने से बडे को नाम लेकर ही बुलाया जाता है , हाँ लेकिन नाम से पहले क़ु., श्रीमान या श्रीमती अवश्य प्रयोग करते हैं।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

खूबसूरत पोस्ट...! कितनी सादगी से मन को छू लिया आपने...।

travel30 said...

welcme back.. aap aa hi gayi iitte din baad :-)

ख़ुशी बड़ी बड़ी चीज़ों कि मोहताज नहीं! एक गाना सुनकर वो बच्चा इतना खुश हो गया! शायद जिंदगी से हमें बहुत ज्यादा नहीं चाहिए होता है

bilkul satya.. atal satya kabhi kabhi kuch choti choti baton se itti khushi milti hai mujhe ki sochta hu ki kabhi agar sab kuch ho jayega tab bhi yeh khushia kabhi nahi mil payegi :-)

Shiv said...

बहुत शानदार पोस्ट है. खुश होने के लिए चंद्रयान देखने की ज़रूरत नहीं है. चाँद से ही काम चल जायेगा.

इरशाद अली said...

बहुत सवेदनशील पोस्ट है. आप तो बहुत ज़ज्बाती है. मैं नए आस उद्धरण पहले बार देखा है की कोई बच्चा रिंग टोन सुनने के लिया कह रहा है आइस क्रीम को छोरकर

एस. बी. सिंह said...

सुंदर आलेख और चित्र

नववर्ष की शुभकामनाएं।

हरकीरत ' हीर' said...

किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है!

bhot gahri bat kahi aapne....pr kitane insan dusron ki khusi pr dhyan dete hain...? is khusi k bich sayad utna hi farq hai jitna aapke liye kisi ki aankh me aansu aana ya aapki vajah se kisi ki aankh me aansu aana....

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही प्रेरक वाकया.शुभकामनाएं.

रामराम.

Shailender said...

Har dil me komal bhavne hoti hi he. Aapke post se ye khyal aur bhi pukhta hua he. Vo garib chota sa bachha tha aur usne aapse na to paise mage na hi kuch aur, chaha to sirf vohi gana, Bhagwan he, uska koi roop nahi he, vo kisi bhi roop me ho sakta he, hamare hi pas vo nazare nahi he jo ki use dekh sake. Aapbadhai ki patra he.

बवाल said...

ख़ूब्सूरत ख़याल और अन्दाज़ लेख का. उम्दा.

मीत said...

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं, किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए.....
सुंदर लेख के साथ निदा जी की बेहतरीन रचना...
---मीत

Waterfox said...

तारीफ़ नहीं करूंगा, धन्यवाद दूँगा। कितना अच्छा सा लगा पढ़ के, एक मुस्कान आ गयी। एक नेक काम तो यही कर दिया :)

Unknown said...

पल्लवी जी.. बहुत अच्छा अनुभव था.. सांझा करने का शुक्रिया. वैसे भोपाल मेरा ससुराल है और पिछ्ले कुछ दिन वहीं बिताये थे| आपने जैसे ही छोटे बच्चे का जिक्र किया, मुझे लगा कि वो भी आकर पूछेगा "नींबू खरीदने हैं?" ....
हे हे हे पर अच्छा हुआ इसने गाना सुन कर उन सब बच्चों को हमारे हास्य व्यंग बाण लगने से बचा लिया जो सिर्फ वहां नीबू और नाड़े ही नहीं बेचते पर गाना भी सुनते हैं ...

आदर सहित

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपकी सँवेदनापूर्ण और बहुत मासूम सी , सुँदर सी पोस्ट पढकर मैँ भी मुस्कुराने लगी पल्लवी जी -
अभी भी यकीन ही नहीँ हो रहा कि आप जैसी पुलिस की अफसर भी होतीँ हैँ भला ? :)
इसी तरह खुशियाँ औ' इन्सानियत के पैगाम देतीँ रहीयेगा यूँ ही,
लिखते रहीयेगा शुभकामना सहित
स स्नेह,
लावण्या

hem pandey said...

अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन कर लेना ही अच्छा काम है. ऐसा व्यक्ति सदैव ही अच्छा काम कर रहा होता है.
'बिना एक भी पैसा खर्च किये सिर्फ अपने व्यवहार से भी किसी को ख़ुशी दी जा सकती है!' - सौ टके की बात.

राज भाटिय़ा said...

अगर इंसान जिन्दगी मै खुश रहा चाहता है तो ऎसी छोटी छोटी खुशियां,जो हमारे चारो ओर बिखरी है, बस इन्हे समेट ले, बहुत सुंदर लगी आप की यह पोस्ट, वही बच्चे अपने बडो से( चाहे वो नोकर ही हो)बतमीजी करते है जिन के मां बाप भी बतमीज होते है, वरना तो भारत मै हमारे संस्कार बडो की इज्जत करनी ही सिखाते है, वो चाहे भिखारी भी हो हम उसे बाबा ही कहते है, अगर हमारा ड्राईवर भी हो ओर उम्र मै हमारे पिता जी के बराबर हो तो उसे चाचा ही कहते है,
धन्यवाद

ललितमोहन त्रिवेदी said...

जिंदगी खुशियाँ बांटने का दूसरा नाम है! दूसरों को थोडी सी ख़ुशी देकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते बल्कि अपने दिल को सुकून से भरते हैं! किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है!
बहुत सुंदर सोच !इतनी संवेदना असंभव तो नहीं परन्तु दुर्लभ अवश्य है !इसे बनाये रखें दुनिया की आपाधापी में भी ! आभार !

anil yadav said...

superhit....

vijay kumar sappatti said...

ye baat bahut achi hai ji , ki baccho ke chehre par agar ham ek muskaan la de.. aur ye bhi ek sochne ka vishay hai ki , ham acha kaam karna kyon bhool rahen hai ..

badhai ..

maine kuch nayi nazmen likhi hai , padhiyenga..

vijay
Pls visit my blog for new poems:
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जितेन्द़ भगत said...

आपके वि‍चारों को अपने वि‍चारों से बेहद-बेहद नजदीक पाता हूँ। आमीन।

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखा है। स‌चमुच किसी को खुशी देना कितना खूबसूरत खयाल है। बड़ा अच्छा लगा यह जानकर कि वह बच्चा स‌िर्फ एक गाना स‌ुनकर खुश हो गया। इस‌ी को तो कहते हैं छोटी-छोटी खुशियां...

समयचक्र said...

अच्‍छा ख्‍याल अच्‍छा लिखा .बधाई

अनुपम अग्रवाल said...

अत्यन्त सुंदर और सामयिक विचार .
आपको लोगों की सोच बदलने की कोशिश करने के लिए बधाई

डॉ .अनुराग said...

जिंदगी रोज हमें एक आइना दिखाती है बस ये आप पर है आप उसमे कौन सा अक्स देखते है......

विष्णु बैरागी said...

मुट्ठी की रेत की तरह फिसलती जा रही है ऐसी तमाम बातें जो हमें दिख्‍ा तो रही हैं किन्‍तु रोकने का कोई जतन नहीं कर रहे हम।
सब कुछ गंवा कर ही होश मे आएंगे हम।
आप अच्‍छा लिखती हैं। मुमकिन हो तो रोज लिखिए।

जय श्रीवास्तव said...

pallaviji,' ges-batti uthaye chalta bachcha ---ek sambhavna. '

समीर यादव said...

वही सहजता और रोज की बात को अपनी लेखनी से पठनीय बना लेने की महारत से सराबोर रचना.

Doobe ji said...

आपको मुकेश का ये गाना याद होगा , किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार ,किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार........................जीना इसी का नाम है

विक्रांत बेशर्मा said...

पल्लवी जी,

बहुत ही खूबसूरत ख्याल हैं आपके ,आपके लेख की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं :

किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना खुदा की बंदगी का सबसे पाकीजा रूप है! और जहां तक हो सके ये मौका हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए!

खुदा की ऐसी ही बंदगी करने की कोशिश करता रहूँगा!!!

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत सुंदर आलेख है पल्लवी जी... बधाई स्वीकारें.

Anonymous said...

पहली बार आपका लेख पढ़ा । ब‍‍‍हुत अच्‍छा लगा । सच पूछें तो संवेदना विहीन होते जा रहे हमारे समाज को दूसरों को खुशी पहुँचाने की मानसिकता का इंजेक्‍शन चाहिए । आपके इस तरह के लेख इंजेक्‍शन का ही काम करेंगे

के सी said...

आपने अच्छा लिखा है, आदर्शों के आस पास पहुँचने की चाह किस में नहीं होती, आपके ही के समान पद पर कार्यरत छोटे भाई के साथ रहते मैंने काफी करीब से देखा है कि पुलिस में रहते हुए किसी को हंसाना अथवा रिंग टोन सुना कर प्रसन्न कर देना उतना सहज काम नही है जितना कि आपकी पोस्ट से लगता है। बेहद दवाब और सदैव तनाव भरा ये कार्य जब डी एस पी स्तर के तीस वर्षीय नौजवान अधिकारियों के लिए कष्टकर बन जाता है तब थानेदार या उसके मातहतों से अपने कार्य निष्ठा और जन रूचि के अनुसार संपन्न करवाने की कल्पना सुखद तो लगती है है पर इस राजनैतिक व्यवस्था में दूर की कौड़ी है।

Rajeev (राजीव) said...

खुशियों को देने वाली चीज़ें भी शायद उम्र के अनुपात में होती हैं और वे भी शायद exponential. बालपन में हम छोटी-छोटी चीज़ों से ही प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, युवावस्था में और बड़ी। शायद उम्र के कई और सोपान चढ़ने पर पाते हों कि यह सब ग़लत ही था। दरअसल प्रसन्नता तो पा ही नहीँ पाये अभी तक! यह व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर भी निर्भर करता है कि प्रसन्नता किस वस्तु में है। हमारे लिये छोटी वस्तु किसी और के किये बड़ी व अन्य के लिये और भी छोटी व महत्वहीन सी ही होती होगी। यदि हम आपके जैसे प्रयास करें और वैसी ही भावना से तो दोनों पक्षों को प्रसन्नता मिलती है।

आपने जो बच्चों द्वारा नाम ले कर सम्बोधन की बात कही, तो हमने अभी तक तो यही सिखाया है कि आदरपूर्वक सम्बोधन के साथ हे वे घरेलू कर्मचारियों को पुकारें। कभी अपवाद भी करते हैं वे। अब देखना है कि बड़े होकर उनका रवैया क्या रहता है, उनकी शिक्षा, साथी व समाज क्या छाप छोड़ते है।

Shikha Kaushik said...

bahut achchhi post .