आज शाम को थाने में बैठी थी....तभी वहाँ एक चोर को पकड़ कर लाया गया! पेशेवर चोर था और चोरी का काफी सामान भी उसके पास मिला खैर मैं उसे टैकल करने बैठी...वो काहे को कुछ बताने चला !मैंने एक डंडा उठाया और उसके हथेली में मारा लेकिन उसने झट से हट पीछे कर लिया...मेरा वार खाली गया! अचानक मेरी हंसी छूट गयी....उसका हाथ खींचना और मेरे डंडे का वार खाली जाना अचानक मुझे अपने प्राइमरी स्कूल में खींच ले गया!
मैं और मेरी छोटी बहन मल्लिका सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते थे! स्कूल में सहपाठियों को भैया बहन पुकारा जाता, अध्यापकों को आचार्य जी बुलाते! जिसका अपभ्रंश कर हब सभी अचार जी बुलाते! हमारे स्कूल के ठीक पीछे एक बड़ा सा नाला हुआ करता था और उसके किनारे किनारे फैली बेशरम की झाडियाँ स्कूल की दीवार को ढकती थीं! बेशरम की संटी हमारी सबसे बड़ी दुश्मन थीं और आचार्यजियों के आकर्षण का केन्द्र! हर क्लास में चॉक डसटर के साथ ही एक हरी संटी भी रखी रहती एक आले में! अगर संटी सूख जाए तो मार खाने में थोडा अच्छा लगता था, कम असर होता था पर हरी संटी ऐसी फनफनाती पड़ती कि तबियत भी हरी हो जाती!
ऐसा कोई माई का लाल नहीं था क्लास में जिसने वो संटियाँ नहीं खाई हों! और संटी खाने का लगभग हर रोज़ एक सा तरीका होता! आचार्य जी प्रश्न पूछते खडा करके...हाथ में संटी फन फनाती रहती! उसे लहराते देखके याद कर कराया भूल जाते!
होमवर्क नहीं किया आज भी, चलो हाथ आगे करो"
इस बार छोड़ दो आचार्य जी कल पक्का पूरा सुना दूंगा!" बच्चे रिरियाते से बोलते!
नहीं...हाथ आगे करो जल्दी" आचार्य जी को भी संटी फटकारने में बड़ा मज़ा आता! कई बार तो मुझे लगता कि शायद संटी मारने के लिए ही आचार्य जी ने इस स्कूल में नौकरी की है!
हाथ आगे आता, रुक रुक कर आधा खुलता ,संटी पड़ती इसके पहले ही पीछे अपने आप खिंच जाता!
साँय की आवाज़ गूँज जाती...सब बच्चे समझ जाते ..संटी हवा में पड़ के रह गयी! जब हाथ में पड़ती तो सटाक के आवाज़ आती!सब मुंह छुपा के हँसते! जब संटी पड़ती ,आँखें अपने आप जोर से मिंच जातीं चेहरा थोडा सा दायें या बाएँ घूम जाता! लेकिन फिर भी दिमाग ऐसा सही जजमेंट करता ..जैसे ही संटी हथेली के पास आती हाथ अपने आप झटके से पीछे हो जाता!आचार्य जी उस समय बौखला जाते और अगली संटी पूरा जोर लगा के मारते!
आचार्य जी सही कह रहे हैं...पूरा याद किया था ,जाने कैसे भूल गए!
बेटा...वोही याद कराने के लिए तो संटी पड़ रही है!' आचार्य जी सिर हिला हिला के कहते!
और हद तो तब होजाती जब जिस को संटी पड़नी हो उसी को तोड़ कर लाने के लिए कहा जाता गोया अपनी कब्र अपने ही हाथ से खुदवाई जाए! जिसको पड़ती वो एक संटी खाने के बाद पीछे पैंट से हाथ मलता...जिससे अगली संटी के लिए हथेली तैयार हो जाए! कभी साँय, कभी सटाक...आचार्य जी को पांच संटियाँ मारने के लिए करीब दस बार संटी फटकारनी पड़ती थी! झूठ नहीं बोलेंगे....हमने भी संटी का स्वाद चखा है! तब तो मज़ा नहीं आता था लेकिन अब याद करके बड़ा मज़ा आता है!
मैं और मेरी छोटी बहन मल्लिका सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते थे! स्कूल में सहपाठियों को भैया बहन पुकारा जाता, अध्यापकों को आचार्य जी बुलाते! जिसका अपभ्रंश कर हब सभी अचार जी बुलाते! हमारे स्कूल के ठीक पीछे एक बड़ा सा नाला हुआ करता था और उसके किनारे किनारे फैली बेशरम की झाडियाँ स्कूल की दीवार को ढकती थीं! बेशरम की संटी हमारी सबसे बड़ी दुश्मन थीं और आचार्यजियों के आकर्षण का केन्द्र! हर क्लास में चॉक डसटर के साथ ही एक हरी संटी भी रखी रहती एक आले में! अगर संटी सूख जाए तो मार खाने में थोडा अच्छा लगता था, कम असर होता था पर हरी संटी ऐसी फनफनाती पड़ती कि तबियत भी हरी हो जाती!
ऐसा कोई माई का लाल नहीं था क्लास में जिसने वो संटियाँ नहीं खाई हों! और संटी खाने का लगभग हर रोज़ एक सा तरीका होता! आचार्य जी प्रश्न पूछते खडा करके...हाथ में संटी फन फनाती रहती! उसे लहराते देखके याद कर कराया भूल जाते!
होमवर्क नहीं किया आज भी, चलो हाथ आगे करो"
इस बार छोड़ दो आचार्य जी कल पक्का पूरा सुना दूंगा!" बच्चे रिरियाते से बोलते!
नहीं...हाथ आगे करो जल्दी" आचार्य जी को भी संटी फटकारने में बड़ा मज़ा आता! कई बार तो मुझे लगता कि शायद संटी मारने के लिए ही आचार्य जी ने इस स्कूल में नौकरी की है!
हाथ आगे आता, रुक रुक कर आधा खुलता ,संटी पड़ती इसके पहले ही पीछे अपने आप खिंच जाता!
साँय की आवाज़ गूँज जाती...सब बच्चे समझ जाते ..संटी हवा में पड़ के रह गयी! जब हाथ में पड़ती तो सटाक के आवाज़ आती!सब मुंह छुपा के हँसते! जब संटी पड़ती ,आँखें अपने आप जोर से मिंच जातीं चेहरा थोडा सा दायें या बाएँ घूम जाता! लेकिन फिर भी दिमाग ऐसा सही जजमेंट करता ..जैसे ही संटी हथेली के पास आती हाथ अपने आप झटके से पीछे हो जाता!आचार्य जी उस समय बौखला जाते और अगली संटी पूरा जोर लगा के मारते!
आचार्य जी सही कह रहे हैं...पूरा याद किया था ,जाने कैसे भूल गए!
बेटा...वोही याद कराने के लिए तो संटी पड़ रही है!' आचार्य जी सिर हिला हिला के कहते!
और हद तो तब होजाती जब जिस को संटी पड़नी हो उसी को तोड़ कर लाने के लिए कहा जाता गोया अपनी कब्र अपने ही हाथ से खुदवाई जाए! जिसको पड़ती वो एक संटी खाने के बाद पीछे पैंट से हाथ मलता...जिससे अगली संटी के लिए हथेली तैयार हो जाए! कभी साँय, कभी सटाक...आचार्य जी को पांच संटियाँ मारने के लिए करीब दस बार संटी फटकारनी पड़ती थी! झूठ नहीं बोलेंगे....हमने भी संटी का स्वाद चखा है! तब तो मज़ा नहीं आता था लेकिन अब याद करके बड़ा मज़ा आता है!
25 comments:
हम भी सरस्वती विद्या मंदिर के पढे हैं । हमारे स्कूल के पीछे अरहर के खेत थे और अरहर की लचीली संटी देखकर ही सिहर के रह जाते थे ।
पहले तो वो नन्हे-मुन्ने को अपने मास्टर के हाथों पिटते देख कर ही मेरे तो भई सिट्टी पिट्टी गुम हो गई । लेकिन पोस्ट पढ़ कर अपने मास्टरों से करारे थप्पड़. डंडे खाये हुये समय की यादें ताज़ा हो गईं...और मास्टर द्वारा मुर्गा बनाने वाले दिन भी याद आ गये। आप अच्छा लिखती हैं, आप सही कह रही हैं कि पुराने दिनों की यादें अच्छी ही लगती हैं।
मार हमने आप से अधिक ही खाई होगी. लेकिन अब लगता है वे पढ़ाने के तरीके बेहूदा ही नहीं थे गैर जरुरी भी थे. उस के बिना भी मकसद को हासिल किया जा सकता था।
गनीमत है कि आचार्य जी वाला गुस्सा आप पर हावी नही हुआ, आपको सिर्फ़ आचार्य जी ही याद आये. वरना तो क्या होता उस महिला का कौन जाने.
वैसे फ़िर हुआ क्या उसका. हालांकि आपके विश्लेषण से कुछ खास मालूम नही हो रहा है. हां, समाजशास्त्र पर आपकी अच्छी पकड है, दिखायी दे रहा है -
"आपको बता दूं कंजर एक अपराधी जनजाति है जिनका पेशा ही चोरी,लूट और डकैती करके अपना जीवन यापन करना होता है. ऐसे लोगों से कुछ उगलवाना पुलिस के लिए भी मुश्किल है."
क्या याद दिला दिया-इसी बेशरम की संटी से कितनी मार खाई है जबलपुर में. एकदम से आह निकल गई यह पोस्ट पढ़कर.
hamne to jara bhi mar nhi khayi.gurujan dant-dara ke chhod dete the.aapki baten sunkar aapke prti purn sahanubhuti hai :-)
मज़ेदार पोस्ट है ।
मेरी पढ़ाई तो मैं ही जनता हू. और रही मार खाने की बात तो शिक्षको ने जो किया वह बिना लिए भी मैं शायद उससे ज्यादा पढता
prastuti behad rochak, hai
shabda- Ririyana,tabiyat hari hona, etc. gad-gad kar dete hain..
Badhai ho !
अब न तो वो संटी रही न वैसे मास्टर जी ,हमने भी खायी है पर आज यद् कर मीठी लगती है.....
यह संटी मे ले गई जब मै इसे खा कर बेहोश हो गई और पता चला पुरे स्कूल मे अफरा तफरी मच गई लेकिन उसका मैने खुब फायदा उठाया कुछ भी कर लू मार नहीं पड़ती अच्छी पोस्ट.
शुक्रिया आपने अपनी पोस्ट से स्कूल के दिनों की याद दिला दी !
यहाँ ( in USA ) अगर ऐसा हो तो टीचर = "अचार जी "
हवालात मेँ बँद हो जायेँ!
Nice post -
- लावण्या
wah padkar shishu mandir mai pahunch gyi.aur gopal achaar ji bhi bada yaad aaye.accha likha hai.
school aur principal ki chadi dono ki yaad apne taza kar di
मार तो बहुत कम खाई हमने...पर सिट्टी-पिट्टी तो गुम हो ही जाती थी :-)
Bahut hi accha laga padhke.. woh hatheli ahiste se khola, peeche khinchna, pant se ponchana bahut baariki se yaad rakhkar bahut khoobsooratise yaad dilaaya aapne..
Bahut shukriya aapka..
agar besharam ki santi na khaate toh aaj aap itne besharam kaise ban paate.
hii didiachha lekh he, school yaad aa gaya.jab saraswati vidhya mandir (shajapur) me padte the to mallika didi se hi kai baar maar khai he.
kitna interesting lekh..school ki yaad dilaa di..aur chor par hansee mujhe bhi aayi...koshish karna uska kaam tha..ha ha..chahe naakaam!Very very well written..
अरे भई कुश के ब्लॉग से इस पोस्ट का जिक्र पढ़ा तो यहां खिंचे चले आए । हम तो सरस्वती शिशु मंदिर जहांगीराबाद शाखा में पढ़े हैं ।
वो जो तालाब के सामने है जी ।
भोपाल शहर बहुत याद आता है ।
इस संटी के जिक्र से से सारे आचार्य और दीदी याद आ गये ।
मजेदार पोस्ट। तो फ़िर क्या हुआ उस चोर का? कैसे टैकल किया?
Sach main bachpan ke yad hari ho gayi.
Maa kasam.........hame school me sirf 10 tak padhai ki..usake baad to nashib hi nahi huwa class me baithane ka.
par sirf aur sirf ek baar santi badi thi o bhi hari-2. lekin galti meri nahi thi ek ladki ne pitawaya tha. us waqt me sahar se goan me aaya tha aur 5 me tha.
khair ek santi ne mere bachpan ki o ghatna yaad dila di.
ab mujhe bhi apne blog par likhana padega aap padhariyega wahan padhane ke liye.
POST dekhakar mujhe bhi shishu mandir ki yaad aa gayi kyoki upadyay achary ji ki maar mene bhi khayi thi ak bar shajapur me .
thanks
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