Wednesday, May 28, 2008


एक उदास शाम
मैं बैठा समंदर किनारे
अपनी भीगी पलकें लिए
उफक पर डूबता हुआ सूरज
जैसे मेरी खुशियाँ भी
साथ लेकर डूब रहा हो

घोर निराशा,घोर अन्धकार
मैं कर रहा था सिर्फ
अपनी मौत का इंतज़ार
समंदर की लहरें
मानो हँस रहीं थीं
मेरे दर्द पर

यकीन था मुझे कि
खुशियाँ मुंह मोड़ चुकी हैं मुझसे
और रौशनी बिछड़ चुकी है

तभी एक मखमली स्पर्श ने
चौंकाया मुझे
एक नन्हा बच्चा आकर
लटक गया मुझसे
मैं भूल गया अपने ग़म
कुछ पल को

हमने रेत का घर बनाया
सीप इकट्ठी कीं
और जी भर के भीगे
उन मचलती लहरों में

और उसी पल उफक पर डूबते हुए
सूरज ने मुझसे कहा

चाहे बंद हो दरवाज़ा,लेकिन
रौशनी की तरह
ख़ुशी को भी
अन्दर आने के लिए
सिर्फ एक दरार ही काफी है...

10 comments:

कुमार मुकुल said...

वाह यह कविता बहुत अच्‍छी लगी, पर अंत में निर्णायक वक्‍तव्‍य देने से बचिए कविता में, उसे किसी और तरह से रखने की कोशिश कीजिए, और इतने सुंदन दृश्‍य आप ढूंढ लाती हैं शुक्रिया पल्‍लवी जी...

बालकिशन said...

सुंदर कविता.
मधुर भाव.
आभार.

Udan Tashtari said...

चाहे बंद हो दरवाज़ा,लेकिन
रौशनी की तरह
ख़ुशी को भी
अन्दर आने के लिए
सिर्फ एक दरार ही काफी है...

--वाह! क्या बात है. बहुत उम्दा. एकदम सत्य. मजा आ गया.

डॉ .अनुराग said...

पल्लवी याद है मैंने एक नज्म लिखी थी अपने बेटे के लिए........बस संदेश यही था जो तुम देना चाह रही हो...

रंजू भाटिया said...

एक भाव पूर्ण अभिव्यक्ति है यह अच्छी लगी

Abhishek Ojha said...

रौशनी की तरह
ख़ुशी को भी
अन्दर आने के लिए
सिर्फ एक दरार ही काफी है...


वाह !

Manish Kumar said...

चाहे बंद हो दरवाज़ा,लेकिन
रौशनी की तरह
ख़ुशी को भी
अन्दर आने के लिए
सिर्फ एक दरार ही काफी है...

बहुत सुंदर बात कही आपने..मन को छू गए ये भाव।
मुकुल जी आपकी टिप्पणी समझ नहीं आई कि
निर्णायक वक्‍तव्‍य देने से बचिए कविता में..और तरह से रखने की कोशिश कीजिए
इस बात से आपका आशय क्या है?

ilesh said...

चाहे बंद हो दरवाज़ा,लेकिन
रौशनी की तरह
ख़ुशी को भी
अन्दर आने के लिए
सिर्फ एक दरार ही काफी है...

nice wording and nice thought....gr8 one...

Anonymous said...

प्रशंसनीय

अखिलेश "एकात्म " said...

wah yah to ek lajawab rachna hai...