आज छुट्टी का दिन था ..अमूमन छुट्टी वाले दिन मैं सुबह ड्राइवर को भी फ्री छोड़ देती हूँ इस हिदायत के साथ की अपना मोबाइल चालू रखे जिससे अचानक कहीं जाना पड़े तो आ जाए!आज भी ड्राइवर को मैंने फोन कर दिया था की शाम को ठीक ६ बजे आ जाए....मैंने शाम को ६.१५ पर बाहर निकल कर देखा तो गाड़ी नही दिखी...मेरे अन्दर धैर्य थोड़ा कम ही है...वापस अन्दर आ गई...५ मिनिट बाद दुबारा बाहर निकली तो फ़िर से गाड़ी नही दिखी..गुस्से में ड्राइवर को फोन लगाया... २ सेकंड में ही गाड़ी लेकर हाजिर हो गया...मैंने आव देखा न ताव ..चिल्लाना शुरू कर दिया...जब मैं चुप हुई तब उसने बताया की पानी बरस रहा था तो उसने गाड़ी को साइड में लगा लिया था ताकि भीगे नही...आ तो वह ६ बजे ही गया था!मुझे बुरा लगा की उसे बिना सुने ही मैंने बुरा भला कह दिया...तत्काल उसे मैंने सौरी बोला!बात आई गई हो गई लेकिन मैं सोच रही थी.....पिछले कुछ सालों में मैं कितना बदल गई हूँ.....बचपन से ही मुझे माफ़ी मांगने में अपनी बेईज्ज़ती महसूस होती थी! अगर कभी बचपन में कोई गलती हो जाती और मम्मी पापा कहते की माफ़ी मांग लो हम कुछ नही कहेंगे...लेकिन मैं गलती मानने से साफ इनकार कर देती थी...
आज ऐसे ही एक किस्सा याद आ गया....मैं बी.एस.सी. सेकंड ईयर में पढ़ रही थी..हर साल की तरह उस साल भी यूथ फेस्टिवल होने वाले थे...चूंकि मैं पिछले एक साल से शास्त्रीय संगीत सीख रही थी तो सभी के कहने पर मैंने प्रतियोगिता में भाग ले लिया...और चूंकि शास्त्रीय संगीत के जानने वाले ज्यादा नही थे तो मैं ओवर कौन्फिदेंट भी थी अपनी जीत को लेकर....मेरे अलावा केवल एक लड़की और थी भाग लेने वाली..हम दोनों में से एक को ही जीतना था! मैंने राग हमीर की एक बंदिश अच्छे से तैयार कर रखी थी और उसी को २-३ प्रोग्राम में गा भी चुकी थी..ऊपर से लोगों की तारीफ ने सचमुच मेरा दिमाग भी ख़राब कर दिया था...दूसरी तरफ़ रश्मि थी जो अभी तक किसी प्रोग्राम में नही गाई थी!और सबसे बड़ी बात की जो उस प्रतियोगिता की जज थीं...मैडम ताम्बे, वो संगीत की जानी मानी हस्ती थीं और बमुश्किल दो हफ्ते पहले ही किसी सिलसिले में मेरा उनके घर जाना हुआ था तो मैंने उन्हें यही राग गाकर सुनाया था और उन्हें भी अच्छा लगा था...तो मुझे पूरा विश्वास था की जीत तो मेरी ही होनी है!प्रोग्राम शुरू हुआ...मैंने गाना शुरू किया और ये क्या....पहला ही सुर ग़लत लगा!मैंने मैडम की तरहफ और मेरे गुरु जी की तरफ़ देखा ...उनके माथे पर बल आ गए थे! इसके बाद मैंने सुर संभाला और उसके बाद पूरी बंदिश लगभग सही गाई....शायद बाकी लोगों को मेरी इस गलती के एहसास भी नही हो पाया था...इस गलती के बाद भी मुझे यकीन था की जीतूंगी तो मैं ही....फ़िर रश्मि आई...उसने राग बागेश्री की एक बंदिश गाई...और पूरी तरह सुर में ५ मिनिट में अपनी बंदिश ख़त्म कर दी...मैं सोच रही थी की मैंने १५ मिनिट तक गाया है और जितनी कलाकारी सम्भव थी सब कुछ दिखा दी थी इसलिए इंतज़ार कर रही थी विजेता के रूप में अपना नाम पुकारे जाने का....और जैसे ही विजेता के रूप में रश्मि का नाम पुकारा गया..एक बार मुझे अपने कानों पर विश्वास नही हुआ...लेकिन ये सच था रश्मि मंच पर पहुँच चुकी थी..इनाम लेने के लिए!मेरा दिमाग एकदम सातवे आस्मान पर पहुँच गया...रही सही कसर मित्र मंडल ने पूरी कर दी ये कह के की तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है...तुम्हे ही जीतना चाहिए था...मैं ये मानने को तैयार नही थी की रश्मि ने मुझसे अच्छा गाया था..गुस्से में उठकर मैं सीधे घर की और चल दी...रश्मि को बेमन से बधाई दी..ताम्बे मैडम ने मुझे बुलाया मगर मैंने उनकी और देखा तक नही....गुस्से ने साधारण शिष्टाचार भी भुला दिया था!दोस्तों के कहने में आकर अगले दिन अपने कॉलेज के प्रिंसिपल के पास पहुँची...ग़लत जजमेंट की शिकायत करने...वो भी संगीत के बड़े जानकार थे और ताम्बे मैडम की बड़ी इज्ज़त करते थे..उन्होंने साफ मना कर दिया उनके निर्णय के ख़िलाफ़ जाने से..मैं बहुत दिनों तक अपसेट रही इस घटना से...और खासकर ताम्बे मैडम के प्रति कटुता से भर गया मेरा मन...मैं एक बार भी ये स्वीकार करने को तैयार नही थी की मैंने गलती की थी!
आज सोच रही हूँ....रश्मि ने वाकई मुझसे अच्छा गाया था! वक्त के साथ कितना कुछ बदल जाता है जो हमे पता भी नही चलता! आज एक सिपाही से भी माफ़ी मांगते संकोच नही होता...सचमुच बदल गई हूँ मैं!
तुम्हारा दिसंबर खुदा !
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मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर
बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम
दोनो...
4 years ago
18 comments:
badlaav agar achha hai to yeh aapka sakaratmak ravaiya darshaata hai. tumhe badhai ho is badlaav ke liye.
mujhe vishwas hai ki agar tambe madam ya rashmi ne yeh lekh padha hoga to zaroor tumhe dil se maaf kar denge.
अच्छी पोस्ट। जिस पेशे में हैं उस पेशे में क्या स्त्री क्या पुरुष सबको घमंड हो जाता है जो क्रोध के प्रमुख कारणों में एक है। मध्यमवर्गीय परिवारों से निकले उच्च प्रशासनिक पदों पर पहुंचे लोगों को ये बीमारी जल्दी हो जाती है। मेरे कुछ सहपाठी आज इन स्थितियों में सचिव और आईजी के पदों पर बैठे हैं और ईमानदारी से कहूं तो बिगड़ चुके हैं।
आपने ये सब कहने का साहस दिखाया और अहसास अभी भी सुगंधित हैं इसके लिए साधुवाद। ये बना रहे।
{पुनश्च - मेरी आज की पोस्ट भ्रष्टाचार पर ही है। फुर्सत मिले तो देखियेगा। }
एक अंतरंग अनुभूति की बेबाक चर्चा,
ऎसा कईयों के साथ होता है किंतु अपने
ईगो को मार कर पता नहीं लोग ईमानदार क्यों नहीं हो पाते ?
सुन्दर प्रस्तुति के लिये सा्धुवाद !
अच्छी पोस्ट! आपको खुश होना चाहिये कि आप व्यवहार में और अच्छी हो गयीं। समझदार! बधाई!
कुछ समय पहले यही बदलाव मैने भी अपने अंदर पाया.. और फिर जो पेड़ झुकता है वही सलामत रहता है.. अपने पढ़ा तो होगा ही. 'क्षमा वीरस्य भूषणम' अर्तार्थ क्षमा वीरो का आभूषण है.. बहुत बढ़िया पोस्ट
bahut hi achhi ost rahi waqt ke saath achhe badlav swagatam.aaj aap ek police nahi,ek shant shant soul pratit ho rahi hai,hamesha khushiya aapki sangani rahe.
और ब्लॉगिंग बहुत बदलती है हमको। मैने एक बार लिखा था - मित्रों आप तो मेरा पर्सोना ही बदल दे रहे हैं!
बदलाव तो जीवन की निशानी है. अच्छे के लिए हो तो सार्थक है. उम्दा पोस्ट.
कमाल है पल्लवी...अजीब इत्तेफाक है.... आज मैंने भी कुछ इस बदलाव पर कुछ लिखा है...अलबत्ता मेरा बदलाव दूसरे तरीके का है...पर एक जमीनी हकीक़त है की हम सब बदल रहे है..
bahut acchha lekh..gyan ji ki baat se 100/ sahamat huun
बहुत बढ़िया बदलाव है। अच्छा हुआ आप बदल गईं।
आप बदल गयी हो, बड़ी अच्छी बात है
लेकिन ये पुलिस वाले कब बदलेंगे
आरुषि हत्या पर --
कौन जाने क्या हुआ कैसे हुआ
आरुषि की मौत ने दिल को छुआ
प्रश्न जो उत्तर बिना हैं आज तक
क्यों मसल डाली कली कचनार की
कौन कहता आरुषि तू मर गयी
खूबसूरत जिंदगी से डर गयी
हर वक़्त रहती है नज़र के सामने
रोज बनती है खबर अखबार की
Get Updated. बदलाव हमेशा होते रहना चाहिए लेकिन ध्यान रहे पिछले से अच्छा और अच्छा. वैसे आपके इस बदलाव के लिए आपकी प्रशंसा की जानी चाहिए
बदलाव तो होते ही रहना चाहिए... और वैसे भी ये तो बहुत अच्छा बदलाव है !
पल्लवी आपकी तारीफ करनी होगी इस ईमानदार पोस्ट के लिए।
समय के साथ बदलना ही जीवन है।
बहुत इमानदारी से लिखा है. यही परिपक्वता की पहचान है जिसे आप बदलना कह रही हैं.
अब समझदार हो गई हो. :) वेरी गुड एन्ड शाबाश.
99% we people are unable to esimate ourself. 50% do overestimate and rest underestmate.Hardly 1% knows reallity.
पल्लवी जी,
आपकी ईमानदार स्वीकारोक्ति अच्छी लगी.
समय हमारी उम्र चुराता है तो बदले में हमें अनुभव भी देता है.समय एक बड़ा शिक्षक है और हम अनजाने ही समय के साथ सीखते चलते हैं. शायद इसीलिये हमारी संस्कृति में वयोवृद्धों के आदर की परम्परा है.
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