Wednesday, April 30, 2008

आत्मा की तेरहवीं


आज आत्मा से हमारा हमेशा के लिए पीछा छूट गया। बचपन से ही हमारा हमारी आत्मा के साथ संघर्ष चला आ रहा है। जाने कैसी आत्मा इशु की थी भगवान् ने हमारी काया को, हम जो भी काम करें इसे पसंद ही नहीं आता, जब देखो अपनी टांग फंसाती रहती थी। पूरे बचपन की वाट लगा दी इस आत्मा की बच्ची ने। जब कभी जेबखर्च के लिए पिता जी की पैंट से पैसे चुराने की सोचते, इस आत्मा की चोंच चलने लगती। जैसे-तैसे कठिन परिश्रम करके पिता जी की जेब हलकी करते, रात होते ही आत्मा के प्रवचन शुरू हो जाते। नन्ही उम्र थी हमारी सो ज्यादा बहस नहीं कर पाते। आत्मा की बातों में आ जाते और पैसे वापस जेब में रख आते। जब भी परीक्षा में नक़ल करने बैठते, कमीनी आत्मा झक सफ़ेद कपडों में सामने आकर खड़ी हो जाती, बगल वाले की कॉपी पर पर हाथ रख लेती! इन आत्मा मैडम ने कई दफा फेल करवाया।

१४-१५ साल की उम्र तक तो ऐसा हुआ कि हम आत्मा के मुकाबले थोड़ा कमज़ोर पड़ते रहे, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे हमारे अन्दर ताकत का संचार हुआ। हमने अपने जैसे आत्मा पीड़ितों का एक ग्रुप बना लिया था, जिसकी नियमित बैठकें होतीं और आत्मा से निजात पाने के तरीकों पर मंथन किया जाता, कभी कभी गेस्ट फेकलटी को बुलाकर आत्मा की आवाज़ दबाने के तरीकों पर लेक्चर भी करवाया जाता। इसका नतीजा ये निकला कि अब ७०% मामलों में हमारी जीत होती और ३०% मामलों में आत्मा की।

खैर,हम धीरे-धीरे बड़े होते गए। जुगाड़ लगाई तो क्लर्क बन गए और ईश्वर का कृपा से क्लर्की भी अच्छी चल निकली। पर ये धूर्त आत्मा को यह भी गवारा नहीं था। घूस ही तो खाते थे, इसके बाप का क्या लेते थे! जैसे ही रात होती तो हमें झिंझोड़ कर जगा देती और प्रवचन शुरू कर देती। हालाँकि अब तक हम मट्ठर पड़ने लग गए थे पर रात तो खराब हो ही जाती। एक दिन इस समस्या का भी समाधान हुआ। रोज़ की तरह आत्मा के उपदेश शुरू हुए तभी हमने देखा, ये सफ़ेद पेंट शर्ट वाली आत्मा के सामने बिलकुल वैसी ही भक काले पेंट शर्ट वाली आत्मा हमारे अन्दर से अवतरित हुई और आते ही कुलटा, कमीनी, मक्कार जैसी कई उच्च कोटि की गालियों से सफ़ेद आत्मा को नवाज़ दिया। अब हमें कुछ कहने का ज़रूरत नहीं थी, दोनों में आपस में मुंहवाद होता रहा। इसके बाद से तो वह वकीलनुमा आत्मा ही हमारी तरफ से बहस करती, हम आराम से सो जाते। सिलसिला चलता रहा, पर हाँ, अब हर बार सफ़ेद आत्मा ही हारती।

हाँ...तो हम आज के झगडे का बात कर रहे थे। वैसे भी रोज़-रोज़ का किटकिट से तंग आ गए थे हम। आज तो उसने हलकान ही करके रख दिया, पीछे ही पड़ गयी हमारे। इतना जोर से चिन्घाड़ी कि जीना दूभर हो गया। ऐसा भी क्या कर दिया था हमने, छोटी सी बात थी। हुआ यूं की एक ठेले वाला हमसे अपने जवान बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र लेने आया, हमने तो भैया आदत के मुताबिक ५०० रुपये मांगे। झूठा कहीं का, कहने लगा की पैसे नहीं हैं। उम्र हो गयी ठेला चलाते-चलाते, इतना पैसा भी नहीं कमाया होगा क्या? और फिर जब हम किसी का काम बिना पैसे के नहीं करते तो इसका कैसे कर देते, आखिर सिद्धांत भी तो कोई चीज़ है। खैर ठेले वाला तो चला गया रोते कलपते पर ये आत्मा की बच्ची बिफर गयी। बहुत जलील किया हमें। सो हमने भी आज अन्तिम फैसला कर डाला, अपनी काली आत्मा को बुलाकर सुपारी दे डाली। और उसने सफ़ेद आत्मा का गला हमेशा के लिए घोंट दिया।

हमें कोई ग़म नहीं उसकी मौत का। कोई गुनाह तो नहीं किया हमने, आखिर कानून में भी तो आत्मा के मर्डर के लिए कोई धारा नहीं बनी है। रोज़ ही तो लोग खुल्लम खुल्ला आत्मा का क़त्ल कर रहे हैं और हम भी इसी समाज का हिस्सा हैं।
बहरहाल, अगली ग्यारस को हमारी आत्मा की तेरहवीं है। पंडित ने बताया है की १०१ आत्माओं की आहूति देने से मरी आत्मा कभी वापस नहीं आती। सो सभी आत्मा पीडितों से अनुरोध है की अधिक से अधिक संख्या में उपस्थित होकर अपनी अपनी आत्माओं की आहूति दें और मृत्युभोज को सफल बनाएं!

Monday, April 28, 2008

ग्लोबल वार्मिंग पर चन्द पंक्तियाँ...


आज देखा...
रात का माथा तप रहा था और
आसमान रात के माथे पर
चाँद की ठंडी पट्टी रख रहा था

मैंने पूछा रात से....
आज तुम्हे बुखार क्यों आया
रात कराहते हुए बोली
आज फिर कुछ लोगों ने
एक जंगल काटकर मॉल बनाया...

Thursday, April 24, 2008

उफ़,ये शिनचैन


कल एक परिचित के घर जाना हुआ! घंटी बजाई,दरवाजा खुलते ही हमारा स्वागत हुआ एक पतली सी गरजती आवाज़ से" वहीं रुक जाओ...पास आई तो अच्छा नहीं होगा" मैंने घबराकर हाथ भी ऊपर कर लिए इस प्रत्याशा में अब हैंड्स अप की आवाज़ आती ही होगी लेकिन शुक्र है इतने पर ही बस हुआ! देखा तो परिचित का ५ साल का बच्चा खिलोने वाली बंदूक हम पर ताने खडा था! चेहरे पर भी ऐसे भाव थे मानो अभी अटैक ही करने वाला है!इतने में उसकी माँ निकल कर आई...हमारी जान में जान आई!"क्या कर रहे हो बिट्टू,नमस्ते करो" माँ की प्रेम पगी आवाज़ आई!
"चुप रहो,अभी तुमको भी मारुंगा" बिट्टू ने माँ को भी हड़काया!

थोडी शांति मिली हमें ,साथ ही खिसियाहट भी कम हुई कि चलो मेहमान ही नहीं घरवाले भी लतियाये जा रहे हैं! माँ ने बड़े शान से बताया" अरे क्या करें...ये बच्चे भी शिनचैन और पॉवर रेंजर देख देख कर बिगड़ रहे हैं' कहने में 'बिगड़ना' शब्द आया लेकिन भाव था कि बहुत स्मार्ट बच्चा है हमारा! बच्चे के लिए चॉकलेट भी लेकर गए थे..पर देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी! उसे छुड़ाना आता था! आहा ,सचमुच स्मार्ट बच्चा था! उसकी माँ चाय लेने चली गयी और हम भी अपने बचपन में खो गए...क्या सडियल बचपन था दुनिया भर के नियम कायदे सिखा दिए गए थे मुझ मासूम को! कोई आये तो नमस्ते करो, कवितायें सुनाओ,पानी पूछो...टी.वी. में भी बड़े प्यारे कार्टून आते थे...मिकी डोनाल्ड टाइप के...चाह के भी मासूमियत छूट ही नहीं पाती थी! चंपक,नंदन,चन्दा मामा पढ़ के बचपन बीता! बदतमीजी की शिक्षा से वंचित ही रह गए!

इन्ही विचारों में खोये थे इतने में बिट्टू फिर से आ गए इस बार उन्होने हमारे मोबाइल पर निशाना साधा! उसकी माँ सामने नहीं थी सो हमने हिम्मत करके आँख दिखा दी, थोडा डरा पर जाते जाते हमें नोंच कर चला गया! हम डरे सहमे से उसकी माँ का इंतज़ार करने लगे! चलो माँ आई चाय नाश्ते के साथ...बिट्टू नहीं आया, हम खुश हुए शायद हमसे डर के चुपचाप जाकर सो गया! मन ही मन अपनी जीत पर प्रसन्न होते हुए चाय का कप थामा,पहली चुस्की ली ही थी कि बिट्टू अपने क्रिकेट के बल्ले के साथ प्रकट हुए...जलती निगाहों से हमें देखा और धाड़ धाड़ हमारी कुटाई शुरू कर दी! २-३ वार तो हम सहन कर गए उसके बाद बर्दाश्त नहीं हुआ.! हमने बिट्टू की माँ की तरफ आस भरी निगाहों से देखा...पर वो मार खा खा के पक्की हो चुकी थी शायद, मुस्कुराती हुई यशोदा मैया सी बैठी रही!

जब आस की आखिरी डोर भी टूट गयी तो हमी ने चेहरे पर नकली मुस्कान लाते हुए कहा "नहीं बेटे, मारते नहीं हैं" " मैं तो मारुंगा,तुमने मोबाइल क्यों नहीं दिया मुझे? बिट्टू ने कारण स्पष्ट किया!
अब तक हमारी पीठ दुखने लगी थी...रहा नहीं गया तो जोर से डांट बैठे और बल्ला छुडा कर अलग रख दिया! हमारी ये गुस्ताखी माँ को नागवार गुजरी, बिट्टू को धमका कर बोली" बेटा, आंटी को बुरा लग रहा है तो उन्हें मत मारो,जितना मारना है हमें मार लो" !इसके बाद माँ ने इस आशा से हमारी ओर देखा कि शायद हम अपना विचार बदल दें और मार खाने को तैयार हो जाएं...पर नहीं साहब हम भी बेशरम बने बैठे रहे ! सही में हमारी पीठ दुःख रही थी!

बिट्टू गुस्से में अभी भी फनफ़ना रहे थे...माँ का मोबाइल उठाया और जोर से दीवार पर दे मारा! मोबाइल की बैटरी ,स्क्रीन सब अलग हो गयी! हमें उस पल बिट्टू को अपना मोबाइल न देने के फैसले पर गर्व महसूस हुआ! खैर...अगले दस मिनिट में हमने चलने की भूमिका बनाईं....माँ ने भी कोई ऐतराज़ नहीं किया! शायद हम बिट्टू से पिट लेते तो वो हमें थोडी देर रुकने का आग्रह करती!

हम उठकर अपने घर चले आये....आकर टी.वी. चलाया! हंगामा चैनल पर शिनचैन ही चल रहा था! एक ८-१० साल का लड़का अपनी माँ से कह रहा था" ओ,बच्चा चुराने वाली बुढ़िया,चुप रहो"... तो ये था शिनचैन....थोडी देर और देखते रहे! उस निहायत बदतमीज बच्चे के सामने बिट्टू तो बहुत शरीफ था! हमें पहली बार बिट्टू पर थोडा प्यार आया! लगा कि बच्चे की गलती नहीं है...जो देखेगा,वही तो सीखेगा!

खैर उन परिचित के यहाँ तो आगे भी जाना पड़ेगा लेकिन अब ध्यान रखेंगे कि पहले फोन कर लेंगे कि बिट्टू तो घर में नहीं हैं.. क्या करें ,बच्चा हमें भी प्यारा है पर उससे मार न खा पायेंगे! सबसे हमारा करबद्ध निवेदन है कोई आओ और इस शिनचैन को वापस उसके देश छोड़ आओ! हमारे तो बिल्लू,पिंकी ही भले हैं!

Tuesday, April 22, 2008

'अपना घर'

बिना घरवालों का एक घर
कोई 'अपना घर',कोई 'वृद्धाश्रम'
कहकर बुलाता है
नाम अलग लेकिन
तस्वीरें सारी हूबहू एक जैसी

अपने अपने अतीत में जीते
कुछ झुर्रीदार चेहरे
सुबह लाफ्टर क्लब में
ठहाके लगाते हैं
फिर अपने कमरों में जाकर
चुपके से रो आते हैं

सबकी खुशियाँ साझी
ग़म भी साझे हैं
आज सबके चहरे खिले खिले हैं
शर्मा जी के पोते ने भेजी हैं
एक लिफाफा भर के मुस्कराहट

चलो ये हफ्ता अच्छा कट जायेगा
अगले हफ्ते शायद
कोई और लिफाफा आ जायेगा...


Sunday, April 20, 2008

मोहल्लों की प्रेमकथायें

आज शाम को घर के बाहर टहल रही थी तो कॉलोनी की छतों पर घूम घूम कर पढाई करते लड़के लड़कियों को देखा! बड़ा जोर का माहौल बना हुआ था पढाई का !अपने दिन भी याद आ गए साथ ही किताबों की आड़ से एक दुसरे को ताकते देखकर मुस्कराहट भी आ गयी! दरअसल आज भी मोहल्लों में बहुत सारे पहले प्यार छत पर घूम घूम कर पढ़ते समय ही होते हैं!

"मम्मी पढ़ने जा रहे हैं छत पर" शाम के ६ बजते ही सभी घरों के बच्चे सज धज कर छत पर पहुँच जाते हैं! मम्मी भी प्रसन्न "कितनी चिंता है पढाई की,टोकना नहीं पड़ता!लडकियां रोज़ नए फैशन के कपडे पहन कर छत पर जायेंगी...लड़के भी टिप टॉप रहने में कोई कसर नहीं छोडेंगे! हाथ में पानी की बोतल,कभी कभी कांच के गिलास में रूह आफ्ज़ा भी छत पर घूम घूम कर ही पिया जाता है! मज़े की बात ये है की आधे लोग इश्क फरमाते हैं...आधे आशिकों के मज़े लेते हैं!कुल मिलाकर किताबें उसी पेज पर हवा खाकर वापस लौट आती हैं!

अब अँधेरा हो गया, नीचे से मम्मी की आवाज़ आने लगी" चलो,नीचे आओ ,नीचे बैठकर पढो" "हाँ मम्मी, आते हैं,अभी तो दिख रहा है"
और सच भी है,दूसरी छत का सब कुछ दिख रहा होता है गोली मारो किताब में लिखे को..कमबख्त कोर्स की किताब को कौन पूछे जब सामने मोहब्बत की किताब खुली हो मोहब्बत की किताब का यही फायदा है...इसके अक्षर पढ़ने के लिए उजाले का होना नितांत गैर जरूरी है!खैर ज्यादा देर तक तो माँ को भी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता,आधे घंटे में नीचे उतरना ही पड़ता है! कोई बात नहीं जहाँ चाह,वहाँ राह! अगर प्रेमी प्रेमिका का घर आमने सामने है तो सोने पे सुहागा! गर्मी के दिन हैं तो खिड़की खोलकर पढना तो लाज़मी है भाई...अब इसमें किसी का क्या दोष जो अगला भी खिड़की खोले ही बैठा है! और अगर दोनों में से किसी एक ने पहले खिड़की पर डेरा जमा लिया और दूसरे को आने में १० मिनिट ऊपर हो गए तो ये १० मिनिट तो क़यामत के समझो! जिसने इन दस मिनिटों का लुत्फ़ उठाया है वही समझ सकता है! अगर दोनों में से जिसने इंतज़ार किया है वो अगले को ज़रूर तड़पायेगा ,दूसरी खिड़की खुलते ही शिकायत भरी आँखों से एक बार देखकर मुंह फेर लेगा और किताब में सिर घुसा देगा जैसे मरा जा रहा हो पढ़ने को,किताब को भी पता होता है कि शुद्ध नौटंकी कर रहा है! अब अगला तब तक किताब में घुसे सिर को देखता रहेगा जब तक कि सिर ऊपर उठाकर देख न ले...और जैसे ही एक बार नज़र मिली देर से आने वाला कुछ अजीब सा मुंह बनाता है किसका अर्थ होता है "प्लीज़ माफ़ कर दो,आगे से ऐसा नहीं होगा" एक बार ऐसा मुंह बनाने से बात नहीं बनती,कम से कम ३-४ बार बनाना पड़ता है तब जाकर एक दूसरे अजीब से मुंह बना कर प्रतिक्रिया दी जाती है जिसका अर्थ होता है कि "ठीक है,ठीक है,इस बार माफ़ किया !अगली बार ध्यान रखना! फिर दोनों खुश होकर मुस्कुरा देते हैं!सुबह के ५ बजे तक इसी प्रकार गहन अध्ययन कार्य चलता है!


इसी प्रकार पढाई करते करते अब परीक्षा सर पर आ गयी! अभी तक तो बात करने का कोई बहाना नहीं था मगर अब काम शुरू होता है प्रश्न बैंक, 20 question और गैस पेपरों का ,इनकी अदला बदली से प्रेम का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है ! खैर परीक्षा हुई,रिजल्ट आया! माता-पिता हैरान "बच्चे ने रात रात भर जाग कर पढाई की फिर भी नंबर इतना खराब" कॉपी जांचने वाला मुफ्त में गालियाँ खाता है ,शिक्षा व्यवस्था को भी कोसा जाता है! लेकिन बेटे बेटी को कोई गम नहीं! रिजल्ट चाहे जैसा आया हो....प्यार की गाडी तो आगे बढ़ ही जाती है.

Friday, April 18, 2008

कुछ और ख्वाब

आज कुछ और ख्वाब आँखों में छलकने लगे
दिल की दहलीज पे हसरत के दीप जलने लगे

ठहरो कुछ देर मेरी नज्मों में ढूंढो खुद को
ये क्या, आये अभी और अभी अभी चलने लगे

कर के बैठा था मोहब्बत की राह से तौबा
जो मिले आप कदम खुद ब खुद फिसलने लगे

मेरे भी चर्चे हर चौराहे पर आम हुए
मेरी गलियों से होके आप जो गुजरने लगे

मैंने पूछा जो सबब आपके तबस्सुम का
आप क्यों बेवजह ही बात को बदलने लगे


Wednesday, April 16, 2008

एक सुखांत प्रेमकथा

एक था प्रेमी 'हितेन्द्र' ! एक थी प्रेमिका 'सुभद्रा' ! सुभद्रा हितेन्द्र का तीसरा और हितेन्द्र सुभद्रा का पहला प्यार था !क्योकी हितेन्द्र २० का और सुभद्रा १६ की थी!दोनों को अपने आप प्यार नहीं हुआ था बल्कि दोनों ने अपनी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से प्यार करना ज़रूरी समझा सो कर लिया!
सुभद्रा ने अपनी क्लास में जूनियर लेकिन प्यार मे सीनियर सहेलियों से सुन रखा था कि प्यार करने से उपहार मिलते हैं,रेस्तौरेंट में जाने को मिलता है और पार्कों की सैर करने को मिलती है सो सुभद्रा प्यार करने को तड़प उठी!रेस्तौरेंट और पार्क तो दुसरे और तीसरे नंबर पर आते थे लेकिन उपहार मिलने की बात से वह खासी प्रफुल्लित थी ! 'पापा ने कभी कुछ नहीं दिलाया,एक बार प्यार हो जाये तो सारे शौक पूरे कर लूंगी' इन्ही विचारों ने सुभद्रा को हितेन्द्र से प्यार करवाया!
उधर हितेन्द्र दो प्रेमिकाओं द्वारा त्याग दिए जाने के बाद खाली खाली महसूस कर रहा था सो बगल में लड़की लेकर चलने की साध ने उसे सुभद्रा से प्रेम करवाया!
दोनों रोज़ मिलने लगे!तीसरे नंबर पर रखे गए पार्क की सैर तो सुभद्रा ने खूब की लेकिन एक महीना बीत जाने के बाद भी वह पहले और दूसरे नंबर के फायदे प्राप्त नहीं कर सकी थी! हितेन्द्र ने न तो उसे कोई उपहार दिया था और न ही किसी रेस्तौरेंट में चटाने ले गया था! हितेन्द्र सच्चा प्रेमी था,प्यार को पैसों से नहीं तोलता था!
इधर सुभद्रा रोज़ आस लेकर जाती की आज तो खाली हाथ नहीं लौटेगी किन्तु जैसे एक बेरोजगार व्यक्ति सुबह नौकरी की तलाश में निकलता है और शाम को चप्पल चट्काता निराश भाव से लौटता है इसी प्रकार सुभद्रा भी वापस लौट आती!इसी तरह दो महीने बीत गए!
ऐसा नहीं था की दोनों में प्यार नहीं था ,बहुत प्यार था दोनों में !क्योकि सुभद्रा का मन अब कोर्स की किताबों से ज्यादा फिल्मी पत्रिकाओं में रमता ,खोयी खोयी सी रहती! हितेन्द्र का एक पासपोर्ट साइज़ का खता खताया सा फोटो जिस पर हेड मास्टर की आधी सील लगी थी,रात में चुपचाप बस्ते में से निकालकर निहारती! और पुराने ज़माने से ही पढ़ते सुनते आये हैं की ये सब लक्षण प्रेम होने के हैं सो हम ये कह सकते हैं की सुभद्रा को प्यार हो गया था! उधर हितेन्द्र का भी कमोबेश यही हाल था!

एक दिन पार्क की बेंच पर बैठे बैठे हितेन्द्र ने प्रस्ताव रखा की अन्य प्रेमियों की तरह हमें भी एक दूसरे को प्यार के छोटे नामों से पुकारना चाहिए,सुभद्रा सहमत हुई और अगले दिन नाम छांटकर लाने के वायदे के साथ दोनों ने विदा ली!सुभद्रा ने सहेलियों से मशवरा कर पांच नाम बेटू,हित्तु,जानू,बब्बू और सोनू छांट लिए ,हितेन्द्र को मशवरा करने की ज़रूरत नहीं थी,पिछली प्रेमिकाओं को प्रदान किये गए नाम अब खाली थे सो उसने भी पांच नाम जान,बेबी,पिंकी,सुभी और रानी छाँट लिए! अगले दिन सभी नामों को ओपन किया गया,सुभद्रा को 'सुभी' जमा तो हितेन्द्र ने 'जानू'सिलेक्ट किया!

ये सब तो ठीक था पर अब सुभद्रा का धैर्य जवाब दे चला था तीन महीने हो गए थे पर अभी तक फूलों के अलावा एक चवन्नी का उपहार नसीब नहीं हुआ था! हितेन्द्र....हाँ,वह उपहार देता था न,रोज़ पार्क की बेंच पर बैठकर सुभद्रा की चुटिया में एक फूल लगाता था,जिसे सुभद्रा नकली मुस्कान के साथ स्वीकार करती और पार्क से बाहर निकलते ही नोंच कर फेंक देती! एक दिन उसने निश्चय किया की उपहार पाना उसका जन्मसिध्ध अधिकार है और वो इसे पाकर ही रहेगी!

अगले दिन दृढ निश्चय के साथ सुभद्रा पार्क में पहुंची, बोली 'जानू ,तुम मेरे लिए क्या कर सकते हो?' हितेन्द्र का माथा ठनका,अनुभवी था,समझते देर नहीं लगी कि अभी जेब पर हमला होने वाला है !बात को बदलते हुए बोला 'सुभी.एक बात बताऊँ मुझे तुम कब ज्यादा अच्छी लगती हो?'
'हाँ हाँ ,बताओ" सुभद्रा तारीफ सुनने को बेचैन हुई!
'जब तुम बिना श्रृंगार,बिना गहनों के होती हो एकदम सिम्पल!तुम्हारी सादगी ही तुम्हारी सुन्दरता है बिंदी लिपस्टिक,चूड़ियाँ हार पहनकर लडकियां पूरी चुडैल लगती हैं'हितेन्द्र ने सुभद्रा को निहारते हुए कहा!
सुभद्रा डर गयी! उसे तो सजने संवरने का भारी शौक था पर 'चुडैल' शब्द ने गज़ब का असर किया!हर लड़की कि चाहत होती है कि प्रेमी कि नज़रों में सबसे सुन्दर लगे !सो अगले दिन मन मसोस कर सुभद्रा ने बिंदी,लिपस्टिक सिंगार पेटी में बंद करके रख दिए ,कान के झुमके निकाल दिए!माँ ने कारण पूछा तो बोली 'माँ,मेरे कान पक रहे हैं इन झुमकों से' !माँ ने झट से सूखी लकडी कि डंडियाँ लाकर दी और कहा 'सूना कान अच्छा नहीं लगता,कुछ नहीं पहनेगी तो कान के छेद बंद हो जायेंगे ' माँ का आदेश मान सुभद्रा ने कानमें डंडियाँ धारण कर लीं !

इधर हितेन्द्र अपनी विजय पर प्रसन्ना था!उपहार मांगे जाने के सारे रास्ते उसने बंद कर दिए थे!अगले दिन सुभद्रा बिना मेकअप के कानों में डंडियाँ फसाए मिलने आई,हितेन्द्र को अच्छी नहीं लगी पर प्रत्यक्ष में बोला 'बहुत प्यारी लग रही हो.एकदम मेरी सुभी लग रही हो,अरे ये कान में क्या पहन रखा है बहुत सुन्दर,एकदम वन्कन्या लग रही हो....मेरी शकुंतला' !हितेन्द्र ने हौसला बढाते हुए उसे एक नाम और प्रदान किया ! सुभद्रा को बिलकुल ख़ुशी नहीं हुई !उस दिन आधे घंटे में ही उठकर आ गयी!
अगले दिन फिर बेमन से पार्क में पहुंची! अब रोज़ रोज़ पद यात्रा करने का कोई कारण भी नहीं था!लेकिन हितेन्द्र आया और बोला 'सुभी ,मैंने आज तक तुम्हे कोई उपहार नहीं दिया ,अपनी आँखें बंद करो,मैं आज तुम्हे कुछ देना चाहता हूँ'
सुभद्रा लहक उठी ,सूने मन में आशा का संचार हुआ ,तुरंत आँखें बंद करके हथेली आगे कर दी!हितेन्द्र ने सूखी लकडी की डंडियों के पांच सेट सुभद्रा कि हथेलियों पर रख दिए!सुभद्रा ने आँखें खोलीं ,उपहार देखते ही आत्मा से गालियों का गुबार उठा जो संकोच वश मुंह तक नहीं आ सका! अन्दर ही अन्दर गुरगुराती घर वापस आ गयी!

अब सुभद्रा बुरी तरह उकता चुकी थी !प्रेम से निजात पाना चाहती थी! उधर हितेन्द्र भी सुभद्रा का मेकअप विहीन चेहरा देख देखकर बोर हो गया था!उसने निश्चय किया कि अगली बार किसी अमीर लड़की से प्रेम करेगा !
एक महीने बाद दोनों उसी पार्क में बैठे थे! सुभद्रा सजी,संवरी महेश के साथ बैठी थी ,हाथ में गिफ्ट पैक किया हुआ कोई उपहार था !उधर दूसरी बेंच पर हितेन्द्र प्रेमलता को फूल भेंट कर रहा था! दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिए!

Tuesday, April 15, 2008

हिज्र का सावन

जब जब हिज्र का सावन आता है
तन्हाई के बादल घिर आते हैं
और दिल की गीली ज़मीन पर
सोया हुआ तेरी यादों का बीज
अंकुरित हो उठता है...

आँखों के मानसून से
भीग उठती है मेरे दिल की कायनात
वक्त की गर्द से ढकी
मेरी मोहब्बत का ज़र्रा ज़र्रा
चमक उठता है धुलकर

और तब
तेरे और मेरे बीच
नहीं रहता वक्त का फासला
रूहें मिलती हैं पूरी शिद्दत से
और मोहब्बत को मिलते हैं
नए मायने....
कल नसैनी लेकर गयी
और सोते हुए चाँद के गालों पर
गुलाल मल आई

आज सुबह देखा
सारी छत रंगी थी गुलाबी रंग से
बदमाश कहीं का..
छत के ऊपर आकर मुंह धो गया




गुफ्तगू

कल रात मेरे और चाँद के बीच
गुफ्तगू हुई...
देर तक मारते रहे गप्पें हम
मैंने कहा चाँद से,
बड़ा परेशान हूँ मैं
नहीं पाता इस दुनिया में खुद को फिट
दुनिया का कद ज्यादा बढ़ गया है
और मैं रह गया हूँ
एकदम बौना और तन्हा सा....

चाँद जोर से हंसने लगा
और बोला....भाई मेरे
तेरी मेरी मुश्किल तो साझी है
तारे भी नहीं करते मुझे अपने खेल में शामिल
मेरे इत्ते बड़े कद के कारण
मैं भी हूँ अनफिट
इस तारों भरे आसमान में....

Thursday, April 3, 2008

तुम्हारा दामन

देखो ,तुम्हारी साडी कैसे टिमटिमा रही है
याद नहीं...?
कल रात की चादर को झाडा था तुमने
कुछ सितारे टूटकर गिर गए थे नीचे
तुम्हारे पल्लू से जो उलझ गए थे
अब शायद ही इन्हें कोई हटा पाए

मैं ही कहाँ निकल पाया
आज तक उलझा हुआ हूँ
सच ,बड़ा पुरकशिश दामन है तुम्हारा .....

गले लगा लो दोस्त

बचपन हमारे बराबर कद के थे दोस्त
आज तुम इतने ऊंचे हो गए हो
कि मेरे हाथ नहीं पहुँचते तुम तक

हम दोनों ने विस्तार किया
मैंने समंदर की तरह
तुमने आसमान की तरह...

मैंने अपनी मौजों को बहुत उछाला पर
खाली हाथ वापस आ गयीं
तुम्हे छू भी नहीं पायी

तुम्ही झुक कर मुझे गले लगा लो दोस्त
जैसे उफक पर आकर
आसमान समंदर के गले लगता है...

ग़म की फितरत

ग़म की फितरत मुझे सताने की
मेरी भी जिद उसे हराने की

छुपा न पाओगे आँखों की नमी
छोड़ो कोशिश ये मुस्कुराने की

दिल तुम्हारा है सच्चे मोती सा
क्या ज़रूरत तुम्हे खजाने की

टूट कर चाहना फिर मर जाना
यही तकदीर है परवाने की

सीने की कब्र में मुर्दा दिल है
न करो जिद मुझे जिलाने की

खेत छूटे, न रोज़गार मिला
ये सजा है शहर में आने की

मुफलिसी में तुझे पुकारा है
ठानी है तुझको आजमाने की



मेरा महबूब

मेरा महबूब ज़माने से जुदा लगता है
नज़रों से कातिल और दिल से खुदा लगता है

उन्स का नूर झिलमिलाता है चेहरे पर
आज सूरज भी मुझे बुझा बुझा लगता है

यारो पूछो न मुझसे अब तो खैरियत मेरी
दिल तो पहले गया अब होश गुमा लगता है

महकी महकी सी चांदनी है,रात महकी है
चश्मे शब को तूने हाथों से छुआ लगता है

मेरे जीने का सबब है तेरे होंठों की हंसी
तेरा हर लफ्ज़ मुझे शहद घुला लगता है





एक बच्चे की जुबानी....

आज मुझे अदालत में फैसला करना है
मम्मी या पापा, साथ किसके रहना है

पापा के खिलोने या मम्मी की लोरी
दोनों में से मुझे किसी एक को चुनना है

मुझ पर क्या बीत रही कोई न सोचे
मेरी तकलीफों से किसी को क्या करना है

मम्मी पापा दोनों ने ही वादा ले लिया है
अब मुझको किसी एक के वादे से मुकरना है

दोनों के बिना ही मैं जी नहीं सकता
कैसे कहूं,किसकी उंगली को पकड़ना है

ना जाने क्यों ऐसा मेरे साथ ही हुआ
घर पे जाके आज तो भगवान् से लड़ना है

चाहे कोई जीते या चाहे कोई हारे
सज़ा तो हर हाल में बस मुझको भुगतना है

कोई भी मुझ से ये क्यों पूछता नहीं
मेरी क्या मर्जी है,मेरी क्या तमन्ना है

चाहे कुछ बोलू या खामोश रहूँ मैं
हर हाल में मुझको दो हिस्सों में बँटना है