Tuesday, April 15, 2008

हिज्र का सावन

जब जब हिज्र का सावन आता है
तन्हाई के बादल घिर आते हैं
और दिल की गीली ज़मीन पर
सोया हुआ तेरी यादों का बीज
अंकुरित हो उठता है...

आँखों के मानसून से
भीग उठती है मेरे दिल की कायनात
वक्त की गर्द से ढकी
मेरी मोहब्बत का ज़र्रा ज़र्रा
चमक उठता है धुलकर

और तब
तेरे और मेरे बीच
नहीं रहता वक्त का फासला
रूहें मिलती हैं पूरी शिद्दत से
और मोहब्बत को मिलते हैं
नए मायने....

2 comments:

Udan Tashtari said...

भाव अच्छे हैं, लिखते रहें, शुभकामनाऐं.

mehek said...

bahut khubsurat