Sunday, April 20, 2008

मोहल्लों की प्रेमकथायें

आज शाम को घर के बाहर टहल रही थी तो कॉलोनी की छतों पर घूम घूम कर पढाई करते लड़के लड़कियों को देखा! बड़ा जोर का माहौल बना हुआ था पढाई का !अपने दिन भी याद आ गए साथ ही किताबों की आड़ से एक दुसरे को ताकते देखकर मुस्कराहट भी आ गयी! दरअसल आज भी मोहल्लों में बहुत सारे पहले प्यार छत पर घूम घूम कर पढ़ते समय ही होते हैं!

"मम्मी पढ़ने जा रहे हैं छत पर" शाम के ६ बजते ही सभी घरों के बच्चे सज धज कर छत पर पहुँच जाते हैं! मम्मी भी प्रसन्न "कितनी चिंता है पढाई की,टोकना नहीं पड़ता!लडकियां रोज़ नए फैशन के कपडे पहन कर छत पर जायेंगी...लड़के भी टिप टॉप रहने में कोई कसर नहीं छोडेंगे! हाथ में पानी की बोतल,कभी कभी कांच के गिलास में रूह आफ्ज़ा भी छत पर घूम घूम कर ही पिया जाता है! मज़े की बात ये है की आधे लोग इश्क फरमाते हैं...आधे आशिकों के मज़े लेते हैं!कुल मिलाकर किताबें उसी पेज पर हवा खाकर वापस लौट आती हैं!

अब अँधेरा हो गया, नीचे से मम्मी की आवाज़ आने लगी" चलो,नीचे आओ ,नीचे बैठकर पढो" "हाँ मम्मी, आते हैं,अभी तो दिख रहा है"
और सच भी है,दूसरी छत का सब कुछ दिख रहा होता है गोली मारो किताब में लिखे को..कमबख्त कोर्स की किताब को कौन पूछे जब सामने मोहब्बत की किताब खुली हो मोहब्बत की किताब का यही फायदा है...इसके अक्षर पढ़ने के लिए उजाले का होना नितांत गैर जरूरी है!खैर ज्यादा देर तक तो माँ को भी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता,आधे घंटे में नीचे उतरना ही पड़ता है! कोई बात नहीं जहाँ चाह,वहाँ राह! अगर प्रेमी प्रेमिका का घर आमने सामने है तो सोने पे सुहागा! गर्मी के दिन हैं तो खिड़की खोलकर पढना तो लाज़मी है भाई...अब इसमें किसी का क्या दोष जो अगला भी खिड़की खोले ही बैठा है! और अगर दोनों में से किसी एक ने पहले खिड़की पर डेरा जमा लिया और दूसरे को आने में १० मिनिट ऊपर हो गए तो ये १० मिनिट तो क़यामत के समझो! जिसने इन दस मिनिटों का लुत्फ़ उठाया है वही समझ सकता है! अगर दोनों में से जिसने इंतज़ार किया है वो अगले को ज़रूर तड़पायेगा ,दूसरी खिड़की खुलते ही शिकायत भरी आँखों से एक बार देखकर मुंह फेर लेगा और किताब में सिर घुसा देगा जैसे मरा जा रहा हो पढ़ने को,किताब को भी पता होता है कि शुद्ध नौटंकी कर रहा है! अब अगला तब तक किताब में घुसे सिर को देखता रहेगा जब तक कि सिर ऊपर उठाकर देख न ले...और जैसे ही एक बार नज़र मिली देर से आने वाला कुछ अजीब सा मुंह बनाता है किसका अर्थ होता है "प्लीज़ माफ़ कर दो,आगे से ऐसा नहीं होगा" एक बार ऐसा मुंह बनाने से बात नहीं बनती,कम से कम ३-४ बार बनाना पड़ता है तब जाकर एक दूसरे अजीब से मुंह बना कर प्रतिक्रिया दी जाती है जिसका अर्थ होता है कि "ठीक है,ठीक है,इस बार माफ़ किया !अगली बार ध्यान रखना! फिर दोनों खुश होकर मुस्कुरा देते हैं!सुबह के ५ बजे तक इसी प्रकार गहन अध्ययन कार्य चलता है!


इसी प्रकार पढाई करते करते अब परीक्षा सर पर आ गयी! अभी तक तो बात करने का कोई बहाना नहीं था मगर अब काम शुरू होता है प्रश्न बैंक, 20 question और गैस पेपरों का ,इनकी अदला बदली से प्रेम का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है ! खैर परीक्षा हुई,रिजल्ट आया! माता-पिता हैरान "बच्चे ने रात रात भर जाग कर पढाई की फिर भी नंबर इतना खराब" कॉपी जांचने वाला मुफ्त में गालियाँ खाता है ,शिक्षा व्यवस्था को भी कोसा जाता है! लेकिन बेटे बेटी को कोई गम नहीं! रिजल्ट चाहे जैसा आया हो....प्यार की गाडी तो आगे बढ़ ही जाती है.

12 comments:

उन्मुक्त said...

काश, मैं भी इसी तरह के मोहल्ले में रहा होता।

vikas pandey said...

बेहतरीन लेख है. कई किस्से ताज़ा हो गये आपका लेख पढ़कर. पहली बार आपका ब्लॉग पढ़ा, रोचक है.

डॉ .अनुराग said...

chate ab bhi vahi hai albatta ab sms aor mobile bas doosra jariya badal gaye hai....hamare mohalle me to patang baji aor cricket ki ball unki chat pe pahunchana bhi ek shagal hua karta tha.

Kirtish Bhatt said...

हम तो थे ही ठस! इमानदारी से पढ़ाई करी फिर भी ........
इससे तो बेहतर होता हम भी छत पर पढ़ाई करते ....कम से कम ' कम नंबर' आने का ठीकरा तो शिक्षा व्यवस्था पर फूटता.

.....मजेदार :)

Udan Tashtari said...

रिजल्ट चाहे जैसा आया हो....प्यार की गाडी तो आगे बढ़ ही जाती है.

--क्या आप भी हमारे मोहल्ले में ही रहती थीं. हा हा!! वो ही लग रही हैं.

-अच्छा है लिखते रहिये-आपको पढ़ना रोचक है. आजकल आप भोपाल में हैं??

मेरा ई मेल-sameer.lal@gmail.com

मौका लगे तो संपर्क करियेगा.

आर.के.सेठी said...

bahut badia.....

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

'मज़े की बात ये है कि आधे लोग इश्क़ फ़रमाते हैं...आधे आशिकों के मज़े लेते हैं! कुल मिलाकर किताबें उसी पेज पर हवा खाकर वापस लौट आती हैं!' वाह क्या लिक्खा है!!!!!!!!!!! बहरहाल...

लोगों से सुना, अनुभव भी कई बार लिखने का सबब बन जाता है. लेकिन अंदाज़-ए-बयाँ में थोड़ी
खलिश रह गयी. वैसे आपने कोशिश बेहतर की है.

सुजाता said...

@समीर जी ,
क्या बात है ? ई मेल पास कर रहे हैं ?
@पल्लवी जी ,
अच्छा लिखा ।हमें तो ये नज़ारे अब नसीब नहीं ,आस पास कोई जवान लड़का -लड़की ही नही है :-(

यदि आप वर्ड वेरीफिकेशन हटा सकें तो अच्छा होगा ।

Abhishek Ojha said...

काश हम भी ऐसे मुहल्ले में रहे होते !
हमारी तो पढ़ाई करते-करते... अब क्या बतायें.. कभी नज़र इधर उधर करो तो पेड़ पौधे दिखते, नहीं तो साथ पढने वाले लड़के... जिनको अपने से ज्यादा हमारे पढने से दिक्कत होती थी... मैं भी कहाँ अपनी दुःख भरी कहानी लेकर चालू हो गया... आप के पोस्ट से अपने आप को जोड़ तो नहीं पाया पर मन में लड्डू जरूर फूटे... :-)

Anonymous said...

superb!!!

Krishan lal "krishan" said...

pallavi ji

आप के ब्लाग पर पहली बार आने का मौका लगा वास्तव मे मै कीर्ति वैद्य के ब्लाग पर गया था वहा आपके कमेन्टस पढ़े मेरा भी यही सोचना था कि ऐसे केस मे पोलीस मे जाना चाहिये था अब जाना चाहिये था या नही इस पर आप पोलिस वालो से बेहतर कौन बता सकता है पता नही क्यों अक्सर पोलिस मे जाने से लोग क्यों कतराते है शायद उन्के सुने सुनाय या अपने अनुभव अच्छे नही रहे होते आप एक अच्छी लेखिका हैं इस विशय पर कुछ क्यों नही लिखती
वैसे आप की च्न्द कविताये पढ़ी बहुत अच्छी लगी लेकिन इस पर विस्तार से फिर कभी बात करूगा

rasheed said...

so funny..so cute n so so true..n what an ending..waah!!itni acchi tarah se aapne prastut kiya!