Friday, February 29, 2008

जेहन से जाती ही नहीं
वो भीगी शाम
छलक उठी थी तुम्हारे
अश्कों में डूबकर
याद है मुझे तुम्हारी ठंडी छुअन
जिसके एहसास से मैं
आज भी सिहर उठता हूँ

तुम्हारा चेहरा...
जैसे किसी ने दर्द लाकर मल दिया हों
सीना तो मेरा भी फट गया था
पर मर्द था न... आंसू जज्ब कर गया था

मेरे सीने से लगी तुम और
उफ़,तुम्हारी वो सिसकियाँ
सीधे दिल में उतर रही थीं
पूरे पहर खामोश थे हम
और शाम गीली हों रही थी

अरसा बीत गया...
पर मांजी की वो भीगी शाम
खिंची चली आई है
मेरे आज का सिरा पकड़कर
यूं तो जिस्म सूखा है पर
रूह तो आज तक भीगी हुई है

शायद आखिरी मुलाकातें ऐसी ही होती हैं....
बिखरे ख़्वाबों को सीने से लगा रखा है
हमने वीरानों में आशियाना बना रखा है

ठोकरें देकर जिसने संभलना सिखाया
हमने उस शख्स का नाम खुदा रखा है

मिठास मोहब्बत की उसके नाम करके
आँखों के खारेपन को बचा रखा है

धड़कनें जाने क्यों बेताब हुई जाती हैं
उफ़,दिल ने क्या शोर मचा रखा है

रूठ के बैठे हैं आज हमसे वो
दरबार रकीबों का लगा रखा है

होके रुसवा भी सहेजते हैं दर्दे इश्क
किसने इस अदा का नाम वफ़ा रखा है

लगता है कोई काफिर मुलाक़ात कर गया
खुदा ने बेवक्त ही मयखाना सजा रखा है

संग हो न जाए बदगुमान कहीं
हमने मंदिर में आइना लगा रखा है

नंगे पाँव चुभ जाए न खार कहीं
तेरे लिए ही चिराग-ए-चाँद जला रखा है

Tuesday, February 26, 2008

शाम है ग़मगीन रात भी उदास है
साए तेरी यादों के मेरे आसपास हैं

शब भर गुजार आया मयखाने के अन्दर
बुझती नहीं है फिर भी ये कैसी प्यास है

ये दिल भी तो कमबख्त मेरी मानता नहीं
जो जा चूका है दूर उसी की तलाश हैy

सीखा कहाँ से तुमने ग़म में भी मुस्कुराना
जीने की ये अदा तो बस फूलों के पास है

उसके देखने से हुआ इश्क का गुमान
अल्लाह जाने सच है या मेरा कयास है -

Monday, February 25, 2008

दीवार ...

दीवार कहाँ बोलती है कुछ

बस सहती रहती है ....

कीलों और हथौडों के वार से

होती रहती है ज़ख्मी बार बार,लगातार



वो अपने ज़ख्म दिखाए भी तो किसे

ज़ख्म देने वाले उसके अपने ही तो हैं

वो ही,जिन्होंने बनाया है उस दीवार को

बदलते है लोग और

बदलता जाता है दीवार का रंग भी

सजती और रंगती रहती है उसके खरीदार की पसंद से



काश कोई हो जो झाँक सके

उसकी दरारों के परे..

Saturday, February 23, 2008

बस एक खता के बदले.....

कितने रिश्ते खोये मैंने एक खता के बदले
कितने लम्हे भिगोए मैंने एक खता के बदले

आरजू नहीं,जुस्तजू नहीं,हसरतें भी अब कहाँ
सपने लुटाये मैंने बस एक खता के बदले

पछताया,रोया मगर पिघला नहीं वो संग

दर्द का दरिया दे गया बस एक खता के बदले

हँस के हर एक सजा मैं करता गया कुबूल
जीने की सजा सुना गया बस एक खता के बदले

बस झूठ का पुलिंदा सा बन के रह गया
कितनी खतायें कर गया बस एक खता के बदले

या खुदा अब तू ही कुछ बड़प्पन दिखा
कितना रुलाएगा मुझे बस एक खता के बदले




शायर ही था...........

शायर ही था महफिल को देखकर मचल
गया दर्द दिल से उठा और नज्मों में ढल गया

देखा था कल रकीब को मयखाने में रोते
अच्छा हुआ जो गिरने के पहले संभल गया

सलाम न दुआ न वो महफिल न ठहाके
ग़म-ए-फुरकत मेरे उस यार को कितना बदल गया

दोस्त के सीने में था एक दोस्त का खंजर
मंज़र ये देखकर मेरा दिल भी दहल गया

Monday, February 11, 2008

कहाँ हो तुम...

कहाँ हो तुम
एक बार तो आ जाओ

तुम्हारा इंतज़ार करते करते
वक़्त वहीं रुक गया है
जहाँ तुम इसे छोड़ कर गयीं थीं
थक कर बैठ गया है दीवार से टेक लगाये
तुम आओ तो ये वक़्त भी चले....

याद है वो पूनम की रात
मैंने चांदनी भर भर कर
उलीची थी तुम पर
पूरी छत रंग गयी थी चांदनी से
वो रंग नहीं उतरा है आज तक
तुम आओ तो ये रंग उतरे....

कुछ वादों,कुछ शिकवों
कुछ लम्हों से बुना एक रिश्ता
तन्हाई की सर्द रातों से जमा हुआ
पड़ा है घर की ताक पर
तुम आओ तो ये रिश्ता पिघले...

बरसों से मेरी पलकों पर
ठहरा हुआ है एक आंसू का कतरा
थक चुकी हैं पलकें
इसका बोझ उठाते उठाते
तुम आओ तो ये बोझा उतरे..
.
कहाँ हो तुम
एक बार तो आ जाओ
फिर शाम जा रही है,फिर रात आ रही है
फिर से मेरी तन्हाई मुझको बुला रही है

आंधियो ठहरो,अभी गिराओ न दरख्त
एक चिडिया अपने बच्चे को दाना खिला रही है

अपनी बेबसी को मैं कैसे करूं बयां
इधर खडी है तू उधर कजां बुला रही है

चाँद ,तारे,फूल सब खामोश से क्यों हैं
लगता है कोई माँ कहीं लोरी सुना रही है

हर शब मेरी तन्हाई का साथी है माहताब
हो जाऊंगा तनहा कल अमावस आ रही है

ये मैंने 31st दिसम्बर को लिखा था

आज अलसुबह जब चाँद को देखा
तो अलसाया हुआ सा था
आँखें थीं नींद से बोझिल
पलकें भी सूजी हुई
मैंने पूछा ,क्यों भाई सोये नहीं हो क्या
चाँद उबासी लेता हुआ बोला

क्या बताऊ दोस्त,नए साल की रात थी
तारों ने खूब धमाचौकड़ी की
खुद भी जागते रहे मुझे भी सारी रात जगाया
रात भर लुकाछिपी खेलते रहे
मेरे पीछे आ आकर छिपते रहे
रात भर मुझसे झालरें लगवाते रहे
कभी गुब्बारे फुलवाते रहे
तंग आकर मैं भी छिप गया एक बादल के पीछे
पर आवारा कहीं का
उसे कहाँ चैन था एक जगह
भाग गया थोडी ही देर में

फिर से मैं और मेरे तारे...
झुंझला कर एक तारे को डांट दिया
बेचारा सहमा सा रोकर भागा
और टूट कर बिखर गया
फिर मैं किसी को डांट भी नहीं पाया

बस,रात भर जागता रहा
देखो तो ज़रा..
नटखट तारे कितने मज़े से सो रहे हैं
पर एक दिल की बात बताऊँ
भले ही शैतानों ने रात भर जगाया
पर मुझे भी दोस्त,मज़ा बहुत आया.

सर्दी का एक दिन...




आज बहुत सर्दी है
धूप भी है अलसाई हुई
बादलों के कम्बल में छुपी
ले रही अंगडाई

शायद आज काम पर जाने का
मन नहीं इसका
पर धरती को मंजूर नहीं
आवेदन छुट्टी का
इसलिए युही बंक मार रही है
सुबह से दो चाय पी चुकी
एक और मांग रही है

बीच बीच में बादलों से देखती है झाँककर
नीचे ठिठुरती धरती को
पर क्या करे बेचारी कच्ची धूप
सात साल के बच्चे जैसी
सुबह सुबह कम्बल से निकलना
मुश्किल है ज़रा...

.कोई बात नहीं
बच्ची ही तो है
इसे सोने देते हैं
चलो आज बिना धूप के ही
इस सर्दी का मज़ा लेते हैं......

मैं और मेरा चाँद...

बचपन का साथी चाँद मेरा
देखना चाहूँ तो छुप जाता है
रूठ जाऊं तो मुस्कुराता है

सोच कर मुस्कुराती हूँ अक्सर
यहाँ से मुझे नज़र आता है
वहाँ से तुझे नज़र आता है

याद है वो छत पर पहली मुलाकात
आज भी वो किस्सा सुनाकर
चाँद जब तब मुझे छेड़ जाता है

जब ज़िक्र करती हूँ तेरे चेहरे का
तब तब अपना हुस्न दिखाकर
मेरी हर बात को झुठ्लाता है

अक्सर चाँद गीला सा लगा है मुझे
जाने कौन सा दर्द है दिल में
अकेले अकेले आंसू बहाता है

फलक खामोश होता है
तारे भी सो जाते हैं
रोज़ रात चाँद उन्हें लोरी सुनाता है

कितने रिश्ते मिले हैं मुझे
कभी दोस्त,कभी हमदर्द
कभी मेरा मामा बन जाता है

ये तो बस चाँद का ही असर है
शाम को जब सूरज से मिलता है
सूरज भी चाँद नज़र आता है

बड़ा नाज़ करता है अपने हुस्न पर
नज़र न लगे शायद ये सोचकर
मुखड़े पर काला टीका लगाता है
याद उसकी आई फिर बरसों के बाद
हमने फिर छल्काया जाम बरसों के बाद

आँगन में खेलते हैं मेरे बच्चों के बच्चे
लौटा है बचपन मेरा बरसों के बाद

सौ बार पढ़ चूका हूँ सुबह से शाम तक
आया है मेरे नाम ख़त बरसों के बाद

ग़म का मारा था,कजां को देखकर
मुस्कुराया आज वो बरसों के बाद

मुफलिसी के दिन गए,ओहदा मिला
पहचाना उसने मुझे बरसों के बाद
मई की एक दोपहर
सिर पर सवार सूरज
बेचैन कर देने वाली हवाएं
बोझा ढोते कुछ मजदूर
बैठ गए हैं थककर और
खोल ली है अपनी पोटली
जिसमे से निकली हैं कुछ मोटी रोटियाँ
साथ में प्याज और अचार

उनके बतियाने और हँसने की आवाज़ से
गूँज उठा है आसमान...

उधर ए.सी. कमरों में बंद
कुछ अमीर उद्योगपति
लीन हैं गहन चर्चा में
पेशानी पर बल,हाथों में फाइलें
और...चर्चा का विषय है
'तनाव प्रबंधन'

हम सब ऐसे ही तो हैं..

कल देखा....

एक दादाजी को
पार्क वीरान होने के बाद
शाम के धुंधलके में
झूला झूलते...

एक आंटी को
बस में खिड़की वाली सीट के लिए
पडोसन से झगड़ते...

एक पिता को
बेटे के सोने के बाद
उसकी ड्राइंग बुक से देखकर
ड्राइंग बनाने की कोशिश करते...

एक पत्नी को
मेले में अपने पति से
गुब्बारे लेने की जिद करते....

एक कंपनी के मैनेजर को

सेमिनार में
लेक्चरर का कार्टून बनाते...

अपनी माँ को
सर्दी जुकाम में
आइस क्रीम न देने पर
मुंह फुलाते...

सच ही तो है
बचपन भले ही चला जाये
बचपना कहाँ जाता है
और शायद यही तो है

जो इंसान की मासूमियत
खोने से बचाता है
सच्चाई और ईमान को परखने लगा है
लगता है खुदा पीकर बहकने लगा है

कल तौबा करके आया था खुदा के सामने
आज मयकदे को देखकर मचलने लगा है

सह न सका हो गयी जब ग़म की इंतिहा
बरसों का रुका बादल बरसने लगा है

ताउम्र भागता रहा लोगों की भीड़ से
अब कब्र में दुश्मन को भी तरसने लगा है

टूटा जो इश्क में तो साकी ने दी पनाह
मयखाने में जाकर वो अब संभलने लगा है

इस कदर तन्हाई से घबराया हुआ है
हर कमरे में आइना वो रखने लगा है

क्या खता हुई जो गुनाहगार बन गया
किताबे माजी के सफ़े पलटने लगा है

हमदर्द बनके आया था वो कत्ल कर गया
अब दोस्तों के नाम से डर लगने लगा है

Sunday, February 10, 2008

यादें...

जाने किधर से आती हैं
किधर को जाती हैं यादें
लेकिन जब छूकर गुज़रती हैं
तो आँखें नम कर जाती हैं यादें...

कभी ज़ख्म देती हैं
कभी मरहम बनती हैं
राम जाने कहाँ से सीखा है
ये जो जादू कर जाती हैं यादें...

आँखों को बरसना सिखाती हैं
और होठों को मुस्कुराना
लौटने को गुज़रे वक़्त में
मजबूर कर जाती हैं यादें...

कभी सूखे हुए फूल में
कभी किसी रूमाल में
ऐसे ही यूं ही बेसबब
बैठी मिल जाती हैं यादें....

किसी को भूलना चाहो
अगर मुंह फेरना चाहो
जेहन पर होके तब सवार
दुश्मन बन जाती हैं यादें...

ऑफिस में बैठे बैठे
या रसोई में पकाते
कभी इजाज़त लेती नहीं
बेवक्त आ जाती हैं यादें...
आज चाँद भीगा हुआ सा लगा
चाँद को सिरहाना बना के सोयी थी

पहली बार जब क़त्ल हुई थी
हवा भी तब मेरे साथ रोई थी

जिस्म के कोई माने न रहे
मेरी आँखों ने उसकी रूह भिगोई थी

तेरे अश्कों को सहेजकर मैंने
रिश्तों की एक माला पिरोई थी

किस संगदिल से मोहब्बत कर बैठी
किस पत्थर से किस्मत बिंधोयी थी

लहरों ने मुकद्दर से साजिश कर
मझधार में मेरी नौका डुबोयी थी

जब भी कोशिश की मुस्कुराने की
वक़्त ने ग़म की सुई चुभोयी थी

हालात ने मुझको रोने भी न दिया
बूढे माँ बाप थे सामने रसोई थी

जब जब दिया तुम्हे कोई आंसू
मैं खुद भी पूरी शब रोई थी
जाने क्या थी वो मंजिल जिसके लिए
उम्र भर मैं सफर तय करता रहा

जागा सुबह भीगी पलकें लिए
रात भर मेरा मांजी बरसता रहा

खता तो अभी तक बताई नहीं
सजा जिसकी हर पल भुगतता रहा

कमी ढूंढ पाया न खुद में कभी
बस हर दिन आइना बदलता रहा

कसम दी थी उसने न लब खोलने की
दबा दर्द दिल में सुलगता रहा

खामोशी से कल फिर हुई गुफ्तगू

वो कहती रही और मैं सुनता रहा

बेईमान तरक्की किये बेहिसाब
मैं ईमान लेकर भटकता रहा

सितारे के जैसी थी किस्मत मेरी
मैं टूटता रहा, जहान परखता रहा

खिलौना न मिल पाया शायद उसे
खुदा का दिल मुझसे बहलता रहा

न पाया कोई फूल सूखा हुआ
सफ्हे वक़्त के मैं पलटता रहा

कुछ अनकही....




याद है मुझे आज भी वो
तुमसे पहली बार मिलना

कुछ कहना चाहा था तुमसे
पर होंठ काम्पकर रह गए
लफ्ज़ जुबां तक आये और

होंठों से फिसल गए....
आज भी वो लफ्ज़
कॉलेज की सीढियों के पास पड़े हैं..

हम बार बार मिले और
हर बार होठों का काम्पना,
लफ्जों का जुबां तक आना और
फिसल कर गिर जाना चलता रहा.....

गंगा के तट पर ,घर में सोफे के पीछे,
library में ,बरिस्ता में
और तुम्हे अपनी bike पर ले जाते हुए
शहर के सभी रास्तों पर
आज भी वो लफ्ज़ बिखरे पड़े हैं...

पर कल जब तुम्हे देखा
कई बरसों के बाद तो
पहली बार झाँककर देखा

तुम्हारी आँखों की गहराई में
तुम्हारी आँखों ने मेरी आँखों से कहा...
न समझ सके तुम मेरी जुबां
जरा ध्यान से देखो

अपने फिसले हुए लफ्जों को
हर लफ्ज़ तुम्हे जोड़ी में मिलेगा

एक तुम्हारा...एक मेरा....

मुझे आपसे प्रेम है.....

जिस दिन से वो आई मेरी जिंदगी में
उजाला बन कर छा गयी
सुबह की चाय में घुला उसका प्यार
मिठास से भर देता मेरे मन को
जब निकलने लगता ऑफिस को
तो दौड़कर आती और
कानों में बुदबुदा जाती
आपसे प्रेम करती हूं
मैं हौले से मुस्कुरा देता

कपकपाती सर्दी में उसके हाथ का स्वेटर
बदन को ही नहीं मन को भी
प्रेम की ऊष्मा से भर देता
हर शाम हलके हाथों से मेरे माथे को सहलाती और
धीरे से बुदबुदाती
मुझे आपसे बहुत प्रेम है
मैं हौले से उसका गाल थपथपा देता

लेकिन हमेशा उसकी आँखों में नज़र आती
अनजानी सी बेचैनी,अनजानी सी प्यास

पचपन साल वो साए की तरह
मेरे साथ चली
कल वो चली गयी इस दुनिया से
मेरे सामने था उसका बेजान शरीर
ठंडे बर्फ से सर्द हाथ और अधखुली आँखें
जिनमे वोही प्यास,वो ही बेचैनी थी
मैं रो पड़ा फूट फूट कर
थाम कर उसके सर्द हाथ
मैं बुदबुदाया उसके कानों में
मुझे तुमसे बेहद मोहब्बत है
अगले ही पल मैंने देखा
बंद हो गयी उसकी अधखुली आँखें

लगता है उसकी बरसों की प्यास बुझी
उसके जाने के बाद........