Friday, March 28, 2008

तुम्हारा घर सजा दिया है

ओफ्फो... कितना अस्तव्यस्त रहते हो तुम
आज तुम्हारे घर गयी थी
तुम्हारे ऑफिस चले जाने के बाद
कोई भी चीज़ तुम्हारी

ठिकाने पर नहीं मिलती है...

पंखा चालू था
खिड़की भी खुली...
बारिश आ गयी तो?
बिखरे हुए सिगरेट के टुकड़े
फैले हुए अखबार
उफ़,चादर तक घड़ी नहीं करते हो...

और तो और...
मेज़ पर कुछ ख़याल भी पड़े थे
बेतरतीब से...

तुम्हारा कमरा ठीक कर दिया है
सब ठिकाने पर रख दिया है
और तुम्हारे बेपर्दा ख्यालों को
अपने लफ्ज़ ओढा दिए हैं मैने
और एक नज्म में लपेट कर
करीने से दराज में रख दिया है...


5 comments:

डॉ.ब्रजेश शर्मा said...

vah,vah !
ye hai kavita.
seedhe bheetar bahut gahre sparsh karti hai.
as a poet ur just converting ur signature in to AUTOGRAPH.
fanmail bhi to badh rahi hai na .
BADHAIYAN !

शैलेश भारतवासी said...

यह पंक्तियाँ पसंद आईं-

तुम्हारा कमरा ठीक कर दिया है
सब ठिकाने पर रख दिया है
और तुम्हारे बेपर्दा ख्यालों को
अपने लफ्ज़ ओढा दिए हैं मैने
और एक नज्म में लपेट कर
करीने से दराज में रख दिया है...

http://www.hindyugm.com

डॉ .अनुराग said...

तुम्हारा कमरा ठीक कर दिया है
सब ठिकाने पर रख दिया है
और तुम्हारे बेपर्दा ख्यालों को
अपने लफ्ज़ ओढा दिए हैं मैने
और एक नज्म में लपेट कर
करीने से दराज में रख दिया है...

i love this........

Anonymous said...

wah
bahut sunder

Anonymous said...

मेज़ पर कुछ ख़याल भी पड़े थे
बेतरतीब से...
kya 'khyal' hain . . .
mujhe nhi pta aap koun ho,
mgr pichhale teen dino se mai aapke es blog ko padh raha hu.
kafi nazm achhi lagi hai.