कुछ जिस्म तड़प रहे हैं
कुछ रूहें कराह रही हैं
कुछ कुचले हुए ख्वाब
कुछ दम तोड़ती उम्मीदें
इधर उधर बिखरी पड़ी हैं
लहू बहा जाता है
तमाम नालियों में
उफ़,पहचाना भी नहीं जाता
कौन सा कतरा हिन्दू का है और
कौन सा मुसलमान का
नल खोलने से भी डरता हूँ
क्या पता इसमें भी....
बेशुमार बच्चे गहरी नींद सोये है
जिनमे से कई
शायद कभी नहीं उठेंगे
एक ताली बजाता बन्दर भी है
शायद बैटरी अभी बाकी है इसकी
एक हाथ उस कार के पास पड़ा है
दूसरा तो ढूंढ़ना भी नामुमकिन है
दिल बैठा जाता है मेरा
पर क्या करूं,पेशे से मजबूर हूँ
दंगे की तस्वीरें कल अखबार में देनी हैं
अरे हाँ...और मंत्री जी का वो बयान भी कि
पीड़ित परिवारों को दिया जायेगा
उचित मुआवजा....
तुम्हारा दिसंबर खुदा !
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मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर
बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम
दोनो...
4 years ago
1 comments:
Wah...
Khubsurat nazm hai....
'Par kya karun peshe se majboor hoon'
iise padhkar yun mahsoos hua jaise band adhere kamre me achanak koi khidki khul gayee....
Bravo....m a fan of yrs...
-swapnil
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