इस बस्ती का रोग पुराना
शब उजड़ी और दिन वीराना
चेहरे अनजाने हैं सारे
दुःख सबका जाना पहचाना
अरमानों की राख से होकर
साँसों का बस आना जाना
सबके दिल बंजारे जैसे
न घरबार न कोई ठिकाना
पंछी,गुलशन सहमे सहमे
कोयल गाये ग़म का तराना
यारो पहले ऐसा न था
कभी शहर था ये मस्ताना
या रब और किसी बस्ती को
ऐसा दिन तू अब न दिखाना
तुम्हारा दिसंबर खुदा !
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मुझे तुम्हारी सोहबत पसंद थी ,तुम्हारी आँखे ,तुम्हारा काजल तुम्हारे माथे पर
बिंदी,और तुम्हारी उजली हंसी। हम अक्सर वक़्त साथ गुजारते ,अक्सर इसलिए के, हम
दोनो...
4 years ago
1 comments:
पुराने पोस्टों में झांकते हुये ’ग़ज़ल" के लेबल पर नजर पड़ी तो आ गया इधर...
ये मुकम्मल ग़ज़ल लगी...इस लेबल की सारी रचनायें पढ़ डाली है। कुछ मिस्रे तो लाजवाब बुने हैं आपने...और खासकर ये ग़ज़ल तो बहुत ही अच्छी बन पड़ी है{छंद के हिसाब से भी और कथ्य के हिसाब से भी}
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