Monday, March 24, 2008

दौलत की आबदारी में

जितने भी इखलाक थे उस नादारी में
गुम हो गए सब दौलत की आबदारी में

यादों से मेरी मुझे महरूम न करो
ताज बन जाते हैं ऐसी यादगारी में

नाकाबिले शिफा हूँ,बीमारे इश्क हूँ
यूं वक्त न जाया करो तीमारदारी में

ए कजां जाओ अभी सोना नहीं मुझको
लुत्फ़ अब आने लगा अख्तर शुमारी में

ख्वाहिशों ने भी आना छोड़ दिया है
जितनी थीं वो बह गयी गौहरबारी में


नादारी- गरीबी
आबदारी - चमक दमक
नाकाबिले शिफा- लाइलाज
कजां- मौत
अख्तर शुमारी- बेचैनी से रात काटना
गौहरबारी- आंसू बहाना








3 comments:

गौरव सोलंकी said...

वाह पल्लवी जी!
सब शे'र लाज़वाब हैं।
और आपकी उर्दू पर पकड़ भी काफ़ी अच्छी जान पड़ती है। लिखती रहिए।

ललितमोहन त्रिवेदी said...

Gazal men aur 'home work' ki zaroorat hai.Radif,kafiyan sahi hai
par 'wazan'ke lihaz se kachh 'unbalanced'lagti hai.Baharhal acchhi kahan ke liye
badhai.

L.M.Trivedi

Sanjeet Tripathi said...

अपन इतने जानकार तो हैं नही कि खामियां निकालें, बस इतना कह सकते हैं कि बतौर एक पाठक अच्छा लगा इसे पढ़ना!!
शुभकामनाएं!